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अग्नि सबको प्राप्त है! उसका किस प्रकार प्रयोग  करना, यह प्रयोग करनेवालेपर निर्भर करता है! ऐसे ही कर्म  करनेकी शक्ति भगवान् ने प्रदान कर रखी है; अब इस शक्तिका प्रयोग किस प्रकारके कर्मोंमें करना -- यह हमपर निर्भर करता है! यदि हम अहंकारसे प्रेरित होकर, किसी विकारको लेकर कर्म करेंगे तो वह दोषयुक्त कर्म होगा तथा उसका बुरा फल हमें भोगना ही पड़ेगा; हम उससे बच नहीं सकते! 


पापकर्म करना मनुष्यका स्वाभाव नहीं है! पापकर्म होते हैं हमारे अन्तः करणमें संचित वासनाओंको लेकर! अतएव पहले उन वासनाओंका निराकरण करना चाहिये! 


संसारके अर्थ-भोग जिनके पास जितने अधिक हैं, वे उतने ही अधिक संतप्त हैं और वे दूसरोंको अधिक संतप्त करते हैं! 


माँगना बहुत बुरा, पर माँगना ही हो तो भगवान् से माँगे और भगवान् को ही माँगे!


भगवान् की शरणागतिके दो रूप संतोंने बताये हैं -- जैसे (१) -- अपने पुरुषार्थसे, अपने प्रयत्नसे भगवान् के शरणापन्न होना तथा (२) -- भगवान् की शरणागत-वत्सलतापर विश्वास करके भगवान् के अपनी शरणमें लेनेकी प्रतीक्षा करना! जगतमें इनके उदाहरण हैं -- बंदरीका बच्चा एवं बिल्लीका बच्चा ! बंदरीका बच्चा स्वयं अपनी औरसे उछलकर माँकी छातीसे चिपक जाता है, पर बिल्लीका बच्चा  अपनी औरसे सक्रिय नहीं होता! बिल्ली स्वयं दाँतोंसे पकड़कर चाहे जब तथा चाहे जहाँ बच्चे ले जाती है! रामकृष्ण परमहंसने दुसरे प्रकारके साधनको बहुत श्रेष्ट बताया है! इस साधनमें पुरुषार्थ न करना नहीं है, पर अपने पुरुषार्थ-साधानपर निर्भरताका भाव नहीं रहता! 

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