प्रेमी भक्त उद्धव
न तथा में प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकरः !
न च संकर्षणो न श्रीनैवात्मा च यथा भवान्!! (भगवान् श्रीकृष्ण)
' हे उद्धव! शंकर, ब्रम्हा, बलराम, लक्ष्मी और स्वंय अपना आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है,जितने प्रियतम तुम हो!'
भगवान् श्रीकृष्णमें परमप्रेमका होना ही भक्ति है! यों तो भक्तिके अवान्तर भेद बहुत-से हैं परन्तु साधारणतः भक्तिके दो भेद हैं -- एक साधनभक्ति और दूसरी साध्यभक्ति! साधानभक्तिके द्वारा अन्तः करण शुद्ध होता है, उसके सुद्ध होनेपर आत्मतत्त्वका, भगवत् -तत्त्वका बोध होता है और उसके बाद पराभक्ति अथवा साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है! पराभाक्तिसे रहित जो ज्ञान है, वह परम ज्ञान नहीं है, केवल साधानज्ञान है, परोक्षज्ञान है! पराभक्ति और परमज्ञान एक ही वस्तु हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है! परमज्ञान अथवा परमभक्तिका प्राप्त होना ही जीवनकी सफलता है! जबतक यह प्राप्त नहीं होती तबतक जीव भटकता रहता है! यह किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर उद्धवका जीवन है! उनके जीवनमें क्रमशः साधनभक्ति, साधनज्ञान, पराभक्ति और परमज्ञानका उदय हुआ है! वे भगवान् के प्रेमी भक्त हैं, उनके तत्त्वके परमज्ञानी हैं, उनके पार्षद हैं और उनके स्वरुप ही हैं!
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