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प्रेमी भक्त उद्धव





फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार

प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे....



व्रजभूमि प्रेमकी भूमि है! लीलाकी भूमि है! वहाँके एक-एक रजकण पूर्ण रसमय हैं, वहाँके एक-एक अणुसे अनन्त-अनन्त आनन्दकी धारा प्रवाहित होती है! वहाँकी लताएँ साधारण नहीं है! मृदुलताकी लताएँ हैं! वहाँके वृक्षोंकी पंक्ति रसिकोंकी जमात है! वहाँकी नदियाँ प्रेमके अमृतसे भरी रहती हैं! वहाँके वायु-मंडलमें श्रीकृष्णके विग्रहकी दिव्य सुरभि प्रवाहित हुआ करती है! वहाँकी गौएँ साक्षात उपनिषदें हैं! वहाँका गौरस ब्रह्मरस है! वहाँके ग्वाल, गोपियाँ सब श्रीकृष्णके अंग हैं! श्रीकृष्ण ही व्रजके रूपमें प्रकट हैं! श्रीकृष्ण व्रजमय हैं,श्रीकृष्णमय व्रज है! वहाँ प्रेम,आनन्द, शांतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है! 

सन्ध्याका समय था, गौएँ वृन्दावनकी  और लौट रही थीं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते हुए जा रहे थे! किसीकी दृष्टि दुरसे उड़ती हुई धुलपर पड़ी, मानो व्रजकी रजरासी पहले स्नान कराकेकिसीको व्रजमें आनेका अधिकार बना रही हो! जब रथ दिखने लगा तब किसीने कहा --' देखो वह रथ आ रहा है!' किसीने कहा --'श्रीकृष्ण ही होंगे!' किसीने कहा -- 'हाँ,हाँ, देखो पीताम्बर, माला और कुण्डल दिखने लगे हैं! शरीर भी श्यामवर्णका ही है! वही रथ, वही घोड़े परन्तु श्रीकृष्ण अकेले क्यों हैं? क्या दाऊ भैया वहीं रह गये? कन्हैयासे आये बिना नहीं रहा गया होगा, इसीसे वे अकेले चले आये होंगे!' सब-के-सब ग्वालबाल उद्धवके रथकी और दौड़ पड़े! उस समय उनके मनमें कितना उल्लास रहा होगा! 

ग्वालबालोंने पास जाकर पहचाना! ' ये तो श्रीकृष्ण नहीं हैं! हमारे ऐसे भाग्य कहाँ की वे आवें! परन्तु उसी रथपर वैसे ही वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित यह कौन है?' वे इस प्रकार सोच ही रहे थे की उद्धव रथ खड़ा करके नीचे उतर पड़े, मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करके ह्रदयसे लगा लिया! उन्होंने कहा -- 'मैं श्री कृष्ण का सेवक उनके रहस्यसंदेशोंको लेकर यहाँ आया हुआ हूँ! उन्होंने बड़े प्रेमसे तुमलोगोंका स्मरण करके मुझे यहाँ भेजा है! घबरानेकी कोई बात नहीं है, एक-न-एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें मिलेंगे ही! भला तुमलोगोंको छोड़कर वे कैसे रह सकते हैं?'   

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