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प्रेमी भक्त उद्धव


प्रेमी भक्त उद्धव




चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे...

हम इन दोनों बातोंकी परिणति उद्धवके जीवनमें पायेगें! अभी तो उद्धव सीख रहे हैं, सिखने आये हैं! आगे चलकर श्रीकृष्णने वियोगमें भी इन्हें जीवन धारण करना पड़ेगा और संसारके  सामने प्रेमभक्तिका आदर्श स्थापित करना होगा तथा उसका रहस्य बतलाना होगा! व्रजमें उन्होंने गोपियोंमें क्या देखा, क्या सीखा, अभी तो यही चर्चा प्रासंगिक है!

सूर्योदयका समय था! दूद दुहा जा चूका था! दही मथनेकी ध्वनि अब कम हो चली थी! हरे-हरे वृक्षोंपर रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे थे! बछड़े भी कूदक-कूदककर अपने हमजोलियों और माताओंसे खेल रहे थे! प्रेमकी करुनामिश्रित धारा चारों और फैली हुई थी, सब कुछ था परन्तु वह रौनक न थी जो श्रीकृष्णके रहनेपर रहती थी! सभीके आँखें किसीका अन्वेषण कर रही थीं! सबको एक अभाव-सा खटक रहा था! और जहाँ दृष्टि पड़ती थी वहाँ सुना-सा जान पड़ता था! मशीनकी भाँती सब अपने-अपने काममें लगे हुए थे परन्तु उनमें उत्साह नहीं था, स्फूर्ति नहीं थी! वे उन कामोंकी ओरसे कुछ उदासीन, कुछ सिथिल और कुछ खींचे हुए-से-जान पड़ते थे!

गोपियाँ घरसे बाहर निकलीं! उन्होंने देखा की नन्दके द्वारपर एक बहुत सुन्दर सोनेका रथ खड़ा है! सभीके मनमें कुतूहल हुआ कि यह किसका रथ है! किसीने कहा रथ तो वही है जिसपर श्रीकृष्ण गये थे! तब यह फिर क्यों आया है! कृष्णका नाम सुनकर बहुतोंकी आँखोंसे आँसू चू पड़े! कई मन मसोसकर  रह गयीं! उनकी कुछ सोयी हुई-सी कसक उभर आयी! किसीने कहा-'अब किसको ले जायगा? यहाँ ले जानेके लिए है ही क्या? श्रीकृष्ण गये हमारी आत्मा गयी! हमारे प्राण गये, अब यहाँ सूखे हाड़ोंकी ठटरी है! इसे कोई क्या करेगा? हाँ, हम श्रीकृष्णकी हैं! उन्होंने कहा है की हम आयेंगे! उनकी बात झूठी नहीं हो सकती! वे आवेंगे और हमें न पावें तो उन्हें क्लेश होगा! बस, इसीलिये हमें जीवित रहना है!'  

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