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प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे....


मैं तुम्हारे पास ही हूँ! तुम्हारे हृदयमें हूँ, तुम्हारी आत्माके रूपमें हूँ! वियोग क्या वस्तु है? इसके लिये पीड़ित होनेकी क्या आवश्यकता? मुझे ढूँढो मत, मेरा अनुभव करो, मैं तुम्हारे पास हूँ!


उद्धव इतना कहकर चुप हो गये! अपने प्रियतमका आदेश, अपने प्राणोंका सन्देश सुनकर गोपियोंको बड़ा ही आनंद हुआ! उनके सन्देशसे उनकी स्मृति ताज़ी हो गयी, वे प्रसन्न होकर उद्धवसे बोलीं -- 'श्रीकृष्ण प्रसन्न हैं, आनंदसे हैं, यह बड़ी अच्छी बात हैं! कंस और उसके अनुचर मर गये, जगतका बड़ा कल्याण हुआ! जैसे हम उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होती थी, वैसे ही मथुरावासी भी उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होते होंगे! वहाँके लोग विशेष प्रेमी होंगे, उनके प्रेमपाशमें श्रीकृष्ण बँध जायँ, यह स्वाभिविक ही है! क्या वे उनमें रहकर हमारी याद रख सकेंगे? रखते हैं? क्या उन्हें वह रात्री याद है, जब उन्होंने चन्द्रिकाचर्चित वृन्दावनमें हमलोगोंके साथ गा- गाकर, नाच-नाचकर रासलीला की थी! क्या वे हमारे प्राणोंको जीवित करनेके लिये यहाँ आवेंगे? अब वे हम वनवासियोंके पास क्यों आने लगे? वे आत्माराम हैं, पूर्णकाम हैं, उन्हें हमारी क्या अपेक्षा हैं? हम जानती हैं की आशा से निराशा अच्छी है! तथापि श्रीकृष्णकी और हमारी आँखें लगी हैं, हमारी आशाकी, अभिलाषाकी लड़ियाँ नहीं टूटती! भला, उन्हें कौन छोड़ सकता है? उनके न चाहनेपर भी लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ सकतीं! उद्धव! यमुनाके पुलिन, गोवर्धनके सिखर, क्रिड़ाके वन, उनकी दुलारी हुई गौएँ, उनकी बाँसुरीकी ध्वनि बार-बार उनकी याद दिला देती हैं! अब भी वृन्दावनकी भूमि उनके चरण-चिह्नोंसे रहित नहीं हुई है! हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? उनका स्मरण ही हमारा जीवन है! उनकी ललित गति, मधुर मुस्कान, लीलाभरी चितवन और प्रेमसनी वाणीसे मोहित होकर हमने अपना हृदय हार दिया है, अपना सर्वस्व उनके चरणोंमें निछावर कर दिया है!  


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