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प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे.....


चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार


अनेकों प्रकारके दान देकर उद्धवको भोजनपान कराकर उन्हें वर दिया कि 'तुम्हें सब सिद्धियाँ मिल जायँ, तुम भगवान् के दास बने रहो और तुम्हें उनकी पराभक्ति प्राप्त हो! उद्धव! तुम उनके पार्षद और श्रेष्ट पार्षद होओ! 


जब उद्धव विदा होनेके लिये श्रीराधासे अनुमति लेनेको आये तब श्रीराधाने कहा - 'उद्धव! हम अबला हैं! हमारे हृदयका हाल कौन जान सकता है? मुझे भूलना मत, मैं विरहसे कातर हो रही हूँ! मेरे लिये घर और वनमें अब कोई भेद नहीं रह गया है! पशु और मनुष्य एक-से जान पड़ते हैं! जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्तिमें कोई अंतर नहीं दीख पड़ता! चंद्रमा-सूर्यका उदय, रात और दिनका होना -जाना मुझे मालूम नहीं है! मुझे अपनी ही सुधि नहीं रहती! श्रीकृष्णके आनेकी बात, उनकी लीला सुनकर, गाकर कुछ क्षणोंके लिये सचेतन हो जाती हूँ! मुझे चारों और श्रीकृष्ण -ही -कृष्ण दीखते हैं, मैं निरंतर मुरली-ध्वनि ही सुनती हूँ! मुझे किसीका भय नहीं हैं! किसीकी लज्जा नही है! कुलकी परवाह नहीं है! मैं उन्हींको जानती हूँ! उन्हींको भजति हूँ! ब्रह्मा, शंकर और विष्णु जिनकी चरणधूलि पानेके लिये उत्सुक रहते हैं उन्हें पाकर मैं उनसे बिछुड़ गयी! मेरा कितना दुर्भाग्य है, कोई मेरा हृदय चीरकर देख ले! उनके अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है! उद्धव! क्या अब उनके साथ क्रीडा करनेका-प्रेम सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त होगा? क्या अब वृन्दावनके कुंजोंमें अपने हाथोंसे मालती, माधवी, चम्पा और गुलाबके फूलोंकी  माला गूँथकर उन्हें नहीं पहनाऊँगी? अब वे वसंतऋतूकी मधुर राजनियाँ, जिनमें राधा और माधव विहरते थे, पुनः न आयेंगे? ' राधा पुनः मूर्छित हो गयीं! 


सखियोंके और उद्धवके जगानेपर राधा पुनः होशमें आयीं और कहने लगीं -'उद्धव! इस शोक -सागरसे मुझे बचाओ! मुझे समझाने -बुझानेसे कोई लाभ नहीं होगा! उनकी बातें याद करके मेरा मन चंचल हो रहा है! विरहिनीकी वेदना विरहिनी ही जान सकती है! सीताको  कुछ-कुछ इसका अनुभव हुआ था! 


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