सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.......


चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार
मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पिडाका किसे विश्वास होगा? मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे- जैसी दुखिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है! मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी! दैवने मुझे ठग लिया! उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं! उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं! उनकी मधुस्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है! मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है! मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ! मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ? ऐसी कोई वास्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ! स्थितिकी गति संभव है परन्तु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है!' राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं, वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे! करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा! 


उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे! वे राधासे अनेकों प्रसन्न करते और प्रेमका रहस्यज्ञान प्राप्त करते, ग्वालोंके साथ वनोंमें घूमते, नन्द-यशोदाके साथ श्रीकृष्णलीलाका कीर्तन और श्रवण करते, गौओंके साथ खेलते, वृक्षोंका आलिंगन करते और लताओंको देखते ही रह जाते! उनका रोम - रोम प्रेममय हो गया, वे ग्वाले हो गये! पता नहीं परन्तु पता है भी की उनका हृदय गोपिभावमाय हो गया! वे वन-वनमें गाते हुए विचरने लगे! उनके हृदयसे यह संगीत निकलने लगा- ' केवल गोपियोंका जन्म ही सार्थक है! यही वास्तवमें श्रीकृष्णकी अपनी हो सकी हैं! ब्राह्मण होनेसे क्या हुआ, जब श्रीकृष्णमें प्रेम नहीं! बड़े-बड़े मुनि जिसकी लालसा करते रहते हैं, वह इन गोपियोंको प्राप्त हो गया! कहाँ ये वनमें रहनेवाली गाँवकी गवाँर ग्वालिनें और कहाँ श्रीकृष्णमें इनका अनन्त प्रेम! परन्तु इससे क्या हुआ, जानें या न जानें, ज्ञान हो या न हो, श्रीकृष्णसे प्रेम होना चाहिये! अनजानमें भी अमृत पि लिया जाय तो लाभ होता ही है! बिना जाने भी  श्रीकृष्णसे प्रेम हो जाय तो वे अपनाते ही हैं! देवपत्नियोंको, इन्दिरा लक्ष्मीको जो प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ वह इन गोपियोंको प्राप्त हुआ है! ये श्रीकृष्णके शरीरका स्पर्श प्राप्त करके कृतार्थ हो गयी हैं! मैं अब वृन्दावनमें ही रहू! मनुष्य न सही, पशु-पक्षी ही सही, वृक्ष ही सही और नहीं तो एक तिनका ही सही! इनके चरणोंकी धूलि तो प्राप्त होगी न! 


[२६]

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,