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प्रेमी भक्त उद्धव :..... गत ब्लॉग से आगे .... 


उद्धवने कहा -- 'जब अधिकांश लोगोंकी  यही सम्मति है की पहले अत्याचारियोंका नाश करना चाहिये और स्वयं बलराम भी इसी बातका समर्थन करते हैं तो में कुछ कहूँ, यह अप्रासंगिक होगा! तथापि भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणा है, वे चाहते हैं की मैं अपना मत सबके सामने रख दूँ तो मुझे अपनी बात कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है! यद्यपि नीतियाँ अनंत  हैं, उनके  वर्णन भी विभिन्न रूपोंमें हुए हैं परन्तु बहुत -सी बातोंका सार थोडेंमें  कहा जा सकता है! इसलिये विस्तार न करके कुछ थोड़े -से शब्द ही में कहूँगा! बुद्धिमान लोग थोड़ी -सी बातका भी विस्तार कर लेते हैं! परन्तु मुझमें ऐसी योग्यता नहीं की मैं अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कह सकूँ!


जो शत्रुओंपर विजय और अपने मित्रोंकी अभिवृद्धि चाहते हैं, उन्हें दो बातों का आश्रय लेना चाहिये -- प्रज्ञा और उत्साह! प्रज्ञाका अर्थ सुद्ध बुद्धि है और सुद्ध बुद्धि वही है, जो अंतर्मुख है, विश्वकल्याणके लिए जो स्वार्थका त्याग कर सकती  है! उत्साहका अर्थ है, अपनी शक्तिको समझकर उसके उचित उपयोगी इच्छा! यदि ये दोनों प्राप्त हों तो व्यवहारमें किसी प्रकारकी त्रुटी नहीं हो सकती! जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है, वे बाहर तो थोडा-सा ही स्पर्श करते हैं, परन्तु भीतर बहुत अधिक घुस जाते हैं;और जिनकी बुद्धि स्थूल है, वे मिट्टीके ढेलेके समान स्पर्श तो बहुत अधिक करते हैं परन्तु भीतर बहुत कम घुसते हैं! जिन्होंने भगवान् का आश्रय नहीं ले रखा है, वे छोटा-सा काम शुरू करते है और उसके लिए अत्यधिक व्यग्र हो जाते है! और जिन्होंने सुद्ध बुद्धि तथा भगवान् का आश्रय प्राप्त कर लिया है, वे बहुत -से काम करके भी निराकुल ही रहते हैं!


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