प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे ....
' सुद्ध बुद्धि और उत्साह रहनेपर भी प्रमादको तनिक भी आश्रय नहीं देना चाहिये! प्रमादके कारण सामने आई हुई वस्तु भी दूर हट जाती है! और सावधान रहा जाय तो अपने सामनेसे वेगसे भागती हुई वस्तु भी पकड़ ली जा सकती है! कब बल प्रकट करना चाहिये और कब क्षमा कर देनी चाहिये, इस बातको समझना भी आवश्यक है! कोई अपने साथ अत्याचार करता हो तो उतावला होकर उसका मुकाबिला नहीं करना चाहिये! अपनी शक्ति और सामर्थ्यपर विचार करके अपने मित्रों तथा सहायकोंके संग्रहमें लग जाना चाहिये, वह समय भी आयेगा, जब अत्याचारियोंका नाश हो जायगा! मैं यह नहीं कहता की केवल भाग्यके आश्रयसे ही रहा जाय परन्तु केवल पौरुषके सहारे ही आगमें कूदनेकी सलाह भी मैं नहीं देता!'
' अपनी शक्तिपर विचार कीजिये! दुसरेकी शक्ति देखिये और सोचिये, आप भगवान् के कितने निकट हैं और वह भगवान् से कितना दूर है! साम, दाम, दण्ड, भेद इन उपायोंको बरतिये भी और भगवान् का भरोसा भी रखिये! स्वंय तयारी भी कीजिये और ऐसे मित्र भी बनाइये जो आपके ही सरीखे उदेश्यवाले हों! ऐसा करनेसे आपको बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा और अनायास ही आपका उदेश्य पूरा हो जायेगा! किस्से कब सन्धि करनी चाहिये और किससे कब विग्रह, कब काम-क्रोधादि शत्रुओंको बिलकुल नष्ट किया जा सकता है और कब उनके एक-एक अंग धीरे-धीरे क्षीण किये जा सकते हैं, इस बातको पहले खूब समझ लेना चाहिये!'
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'भगवान् श्रीकृष्ण आश्रितवत्सल हैं! ये भक्तोंके सामने दूसरोंकी ओर दृष्टि नहीं डालते! युधिष्ठिरके यज्ञमें इनका जाना अत्यन्त आवश्यक है! यदि वहाँ गये बिना ही शिशुपाल अथवा सिर्फ जरासन्धपर चढ़ाई कर दी जाय तो परिस्थिति बड़ी भयंकर हो जायगी! याद रहे, जरासन्ध या शिशुपालको ही मरना नहीं है! जैसे राजयक्ष्मा रोगोंका समूह है, वैसे ही वे दोनों दुष्ट दैत्यों और राजाओंके समूह हैं! उनसे लड़ाई छेड़ देनेपर उनका ताँता टूटना कठिन हो जायगा और हम पांडवोंकी सहायतासे भी वंचित रह जायँगे! सम्भव है, युधिष्ठिरके यज्ञमें भी विघ्न पड़ जाय और वे श्रीकृष्णके न जानेसे यज्ञ ही न करें! फिर पाण्डव हमलोगोंके बारेमें क्या सोचेंगे? जरासन्ध या शिशुपालने तो हमपर चढ़ाई की नहीं है कि आत्मरक्षाके लिये हम युधिष्ठिरके यज्ञमें न जायँ! हमे उनपर चढ़ाई करनी है और ऐसे अवसरपर अपने मित्र तथा सम्बन्धियोंके उत्सवमें भाग न लेकर किसीपर चढ़ाई कर देना मुझे तो निति-सांगत नहीं जान पड़ता!'
परन्तु प्रश्न इतना ही नहीं है! शिशुपालकी बात तो पीछे देखी जायगी! जरासन्धके कैदी राजाओंकि प्रार्थना उपेक्षा करनेयोग्य नहीं है! दिनोंकी, शरणागतोंकी रक्षा करना सभीका एकांत कर्तव्य है और भगवान् श्रीकृष्णने तो इसका व्रत ले रखा है!
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