उद्धवको 'वासुदेवः सर्वम' का उपदेश
यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वाड्.मनः कायवृत्तिभिः ।।६।।
जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना - भगवद्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे।।६।।
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्यया त्ममनिषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वता मुक्तसंशय : ।।७।।
उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि - ब्रह्माबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दीनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मास्वरुप दिखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सरे संशय -संदेह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कही मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है।।७।।
अयं हि सर्वकल्पनां सध्रीचिनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ।।८।।
मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ट साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी भावना की जाय ।।८।।
न ह्यांगोपक्रमे ध्वन्सो मद्धर्मस्योवाण्वपि ।
मया व्य्वसितः सम्यड्.निर्गुणत्वादनाशीषः ।।९।।
उद्धवजी! यह मेरा अपना भागवतधर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न -बाधासे इसमें रत्तीभर भी अंतर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वंय मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निशचय किया है।।९।।
यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद् भायादेरिव सत्तम ।।१०।।
भागवतधर्ममें किसी प्रकार की त्रुटी पड़नी तो दूर रही - यदि इस धर्मका साधन भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ।।
१०।।
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनिषा च मनीषिणाम् ।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ।।११।।
विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है की वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।।११।।
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