आप को हमारा नमस्कार है l आप स्थूल,सूक्ष्म समस्त गतियों के जाननेवाले तथा सबके साक्षी है l यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं - तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं l क्योंकि आप की लीलाएँ अमोघ हैं l आप सत्यसंकल्प हैं l इसलिए जीवों के संस्काररूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं l इस समय आपको सत्त्वगुण प्रधान शांतजन ही विशेष प्रिय हैं; क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएं साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिए ही हैं l यह मूढ़ है ,आपको पहचानता नहीं है, इसलिए इसे क्षमा कर दीजिये l भगवन ! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है l साधुपुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं l अत: आप हमें हमारे प्राणस्वरूप पतिदेव को दे दीजिये l हम आपकी दासी हैं l क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन -आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है l
भगवान् के चरणों की ठोकरों से कालिया नाग के फन छिन्न-भिन्न हो गए थे l वह बेसुध हो रहा था l जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया l धीरे-धीरे कालिया नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी l भगवान् श्रीकृष्ण से कालिया इस प्रकार बोला l
कालिया नाग ने कहा - नाथ ! हम जन्म से दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेनेवाले - बड़े क्रोधी जीव हैं l आप की ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं l हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं l अब आप अपनी इच्छा से - जैसा ठीक समझें -कृपा कीजिये या दंड दीजिये l भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - 'सर्प ! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिए l तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा l मैं जानता हूँ कि तू गरुड के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था l अब तेरा शरीर मेरे चरण-चिन्हों से अंकित हो गया है l इसलिए जा , अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं l भगवान् श्री कृष्ण कि एक-एक लीला अद्भुत है l उनकी आज्ञा पाकर कालिया नाग अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की l लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से यमुनाजी का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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