अब आगे........
एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण l यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया l अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुंदरी गोपी हाथों से मुँह ढँककर भय की नक़ल करने लगी l इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर श्रीकृष्ण का पता पूछने लगी l इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान् के चरणचिन्ह देखे l वे कहने लगीं - 'अवश्य ही ये चरणचिन्ह उदार शिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुंदर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज अंकुश और जौ आदि के चिन्ह स्पष्ट ही दीख रहे हैं l तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी ब्रजयुवती के भी चरण चिन्ह दीख पड़े l उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं l अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की यह 'आराधिका' होगी l इसीलिए इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्रन्प्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है l इस गोपी के उभरे हुए चरण चिन्ह तो हमारे ह्रदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं l भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं l वे अपने-आप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं l जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है ? उन्होंने तो एक खेल रचा था l
इधर भगवान् श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी के साथ थे, उसने समझा कि 'मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ l इसीलिए तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण केवल मेरा ही मान करते हैं l मुझे ही आदर दे रहे हैं l और श्रीकृष्ण से कहने लगीं - अब तुम मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो' श्यामसुंदर ने कहा - 'अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो' l यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी l 'हा नाथ ! हा रमण ! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ l शीघ्र ही मुझे अपने सानिध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो' l ऐसा कहकर वह अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी l इसके बाद वे जब तक चांदनी थी तब तक वे ढूंढती रही, फिर वे उधर से लौट आयीं l श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पर - रमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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