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श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन







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              जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुंदर और गौरसुन्दर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी ब्रज में आये हैं, तब उनके ह्रदय में बड़ी व्यथा हुई l वे व्याकुल हो गयीं l भगवान् के स्वरुप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों कि  चित्त्वृतियाँ सर्वथा निवृत हो गयीं मानो वे समाधिस्थ - आत्मा में स्थित हो गयीं हो l गोपियाँ मन-ही-मन भगवान् कि लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुस्कान और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं l वे झुण्ड -कि-झुण्ड इकट्ठी हो कर इस प्रकार कहने लगीं l        
               गोपियों ने कहा - धन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे ह्रदय में दया का लेश भी नहीं है l यह कितने दुःख कि बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करनेवाले श्यामसुंदर का मुखकमल दिखलाया l और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रहे हो l सुचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत-ही अनुचित है l वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई ऑंखें तुम हमसे मूर्ख कि भांति छीन रहे हो l
                अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुंदर को भी नए-नए लोगों से नेह लगाने कि चाट पड़ गयी है l देखो तो सही - इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया ? आज कि रात का प्रात:काल मथुरा कि स्त्रियों के लिए निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा l आज उनकी बहुत दिनों कि अभिलाषाएं अवश्य ही पूरी हो जाएँगी l यद्यपि हमारे श्यामसुंदर धैर्यवान के साथ गुरुजनों कि आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा कि युवतियां अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीँ रम जायेंगे l फिर हम गँवार ग्वालिनों के पास हे लौटकर क्यों आने लगे l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)     

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