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श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन





         

अब आगे.............

              यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के ह्रदय में बड़ी जलन हो रही है, वे संतप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा 'मैं आऊँगा' यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरं बँधाया l  गोपियों को जब तक रथ कि ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही, तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से  वहीँ ज्यों-के-त्यों खड़े रहे l  परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था l अभी उनके मन को आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें l
              इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेग्वाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुना जी के किनारे पहुँच गए l वहां उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर अमृत के समान मीठा जल पिया  l अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे l उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि  श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं l अब उनके मन में शंका हुई कि 'वासुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूँ, अब वे जल में कैसे आ गए ? ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकाल कर देखा l वे उस रथ पर भी पूर्ववत बैठे हुए थे l उन्होंने यह सोचा कि मेरा भ्रम होगा l फिर डुबकी लगाई और देखा कि शेषजी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं l उनका बदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन है l एक हाथ में पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथों में शंख, चक्र, और गदा, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, गले में कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है l साथ ही सारी शक्तियाँ मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही है l भगवान् की वह झाँकी निरखकर अक्रूरजी का ह्रदय परमानन्द से लबालब भर गया l उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी l अब अक्रूरजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गदगद स्वर से भगवान् की स्तुति करने लगे l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
             

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