अक्रूर जी को भगवान् श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्य रूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे l भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा - 'चाचाजी ! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या ?
अक्रूरजी ने कहा - 'प्रभो ! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ है, वे सब आप में ही हैं l क्योंकि आप विश्वरूप हैं l जब मैं आप को ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो l उन्होंने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे l नन्दबाबा और ब्रजवासी तो पहले से ही वहां पहुँच गए थे, और मथुरापुरी के बाहरी उपवन में रूककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे l भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से मुस्कराते हुए कहा - 'चाचाजी ! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये l हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिए आयेंगे' l
अक्रूरजी ने कहा - प्रभो ! आप दोनों के बिना मैं मथुरा नहीं जा सकता l स्वामी ! मैं आपका भक्त हूँ आप मुझे मत छोडिये l आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्द राय जी आदि आत्मीयों के साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये l हम गृहस्थ हैं l आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये l यदुवंश शिरोमणि ! आप देवताओं के भी आराध्य देव हैं l जगत के स्वामी हैं l आप के गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी हैं l उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं l नारायण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ l श्रीभगवान ने कहा - चाचाजी ! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृद-स्वजनों का प्रिय करूँगा l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप , स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो , जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण , उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं – विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है , उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क
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