भक्त का कर्मयोग
में भगवान् के लिए कर्म कर रहा हु | वे मेरे स्वामी है और में तन -मन से सच्चाई के साथ उनकी सेवा करने का प्रयत्न कर्ता हु | में भगवान् को ही जीवन में प्रथम स्थान देता हु , और प्रत्येक समय भगवान् के सनिधि कीतीव्र अनुभूति के साथ भगवत -कर्म में रत रहता हु |
में जानता हु की मुज्मे सफलता प्रदान करने वाली योग्यताये इश्वर की देन है और मैं इन योग्यताओ का बुद्धिमानी एवं विवेकपूर्वक उपयोग कर्ता हु | यो करने से मेरे जीवन में निरंतर वीकाश एवं समृधि की वृद्धि होती है |
में यह अनुभव करता हु के भगवान् के राज्य में प्रत्येक प्राणी का अपना उचित स्थान एवं उचित कार्य है | मैं तुछ अप्रन्संताओ , खिनताओ एवं विद्रोहों को कभी मन में स्थान नहीं पाने देता | में कभी दुसरे की अच्छी स्थिती से इर्ष्या नहीं करता | में कभी अपनी अथवा अपनी सफलता के तुलना दुसरो से नहीं करता | इसके विपरीत में परमपिता परमात्मा द्वारा मेरे लिए स्थिर किये आदर्श का अनुसरण करता हु और मानता हु , जो कुछ भी है श्रेस्ठ है |
में अपनी प्रत्येक आवस्यकता के पूर्ति के लिए भगवान् पर विश्वास करता हु, क्युकी मैं जानता हु के वह बिना किसी भूल के उस मार्ग को मेरे सामने खोल; देंगे, जिसको पकड़ कर में अपने परमोच्च शुभ को प्राप्त कर सकू | में भगवान् के लिए कर्म करता रहू और मेरा प्रत्येक कर्म मानव-सम्मान एवं भगवान् के शान के अनुरूप होता है |
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