जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, जुलाई 17, 2012

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात
  1. सबसे विनयपूर्वक मीठी वाणी से बोलना |
  2. किसी की चुगली या निंदा नहीं करना |
  3. किसी के सामने किसी भी दुसरे के कही हुई बात को न कहना , जिससे सुनने वाले के मन में उसके प्रति द्वेष या दुर्भाव पैदा हो या बढे |
  4. जिससे किसी के प्रति सद्भाव तथा प्रेम बढे , द्वेष हो तोह मिट जाये या घट जाये , ऎसी ही उसकी बात किसी के सामने कहना |
  5. किसी को ऐसे बात कभी न कहना जिससे उसका जी दुखे |
  6. बिना कार्य जायदा न बोलना , किसी के बिच में न बोलना , बिना पूछे अभिमानपूर्वक सलाह न देना, ताना न मारना, साप न देना |
  7. अपने को भी बुरा भला न कहना , गुस्से में आकर अपने को भी साप न देना, न सर पीटना |
  8. जहा तक हो परचर्चा न करना, जगचर्चा न करना |
  9. आये हुए का आदर सत्कार करना, विनय सम्मान के साथ हस्ते हुए बोलना |
  10. किसी के दुःख के समय सहानुभूतिपूर्ण वाणी से बोलना, हसना नहीं,किसी को कभी चिढाना नहीं |
  11. अभिमान वश घरवालो को कभी किसी को मुर्ख, मन्द्भुधि, नीच,वृतिवाला तथा अपने से नीचा न मानना , सच्चे ह्रदय से सबका सम्मान-हित करना |
  12. मन में अभिमान तथा दुर्भाव न रखना, वाणी से कभी कठोर तथा निंदनीय सब्दो का उच्चारण न करना |
  13. सदा मधुर विनम्रता युक्त वचन बोलना | मुर्ख को मुर्ख कहकर उसी दुःख न देना |
  14. किसी का अहित हो ऐसे बात न सोचना, न कहना और न कभी करना |
  15. ऐसे ही बात सोचना, कहना और करना जिससे किसी का हित हो |
  16. धन, जन,विद्या,जाती,उम्र,रूप,स्वस्थ्य.बुधि आदि का कभी अभिमान न करना |
  17. भाव से, वाणी से , इशारे से भी कभी किसी का अपमान न करना, किसी की दिल्लगी न उडाना |

दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४, पेज ११८-११९

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