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मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष
आपको जो मुझमे गुण समूह के दर्शन हुए है और जिनका आप लोगो ने मधुर सब्दो में वर्णन किया है, वे वस्तुत मुझमे नहीं है | यह मैं आपसे सत्य कहता हु | आपको गुण दीखते है इसमें आपका मेरे प्रति अकृत्रिम प्रेम ही कारण है अथवा यह आपकी केवल सद्गुण दर्शिनी द्रिस्टी का परिणाम है | किसी में गुण समूह देखकर कोई दूसरा उसका वर्णन करता है, तब उसमे प्राय तीन बाते होती है :- (१) वह इतना महान्हाई के उसे जगत में सर्वर्त्र वैसे ही केवल गुण ही दीखते है , जैसे ब्रह्मदर्शी ज्ञानी को अथवा भगवतप्रेमी को सर्वत्र ब्रह्म या भगवान की ही अनुभूति होती है| (२) या उसे गुणों के साथ दोष भी दीखते है और वह केवल गुणों को ही ग्रहण करता है | दोष को ग्रहण करता ही नहीं | (३) अथवा उसे गुण दोष दोनों दीखते तोह है पर वह दोष का वर्णन न करके गुण का ही वर्णन करता है | इन तीन ही बातो में गुण वर्णन करने वाले का महत्व है , यह उसका आदर्श गुण है | गुण सुनने वाला यदि गुण वर्णन करने वाले के इश महत्व को न समजह कर बिना ही हुए अपने में उन गुणों को आरोप कर लेता है , अपने को उन गुणों से संपन्न मान लेता है , तोह वह अनुचित लाभ उठाना का प्रयत्न करता है | यह उसकी मुर्खता मात्र है, क्युकी किसी के द्वारा गुण बताये जाने से गुण तोह आ नहीं गए | किसी कंगाल को यदि कोई करोडपति बता दे तोह इससे वह करोडपति तोह हो नहीं जाता | हा यदि वह मान लेता है तोह अपने आपको धोखा देने की मुर्खता अवस्य करता है | आप लोग अपनी सध्भावना से मुझे यह बतला दे की में आप लोगो के सदभाव का हार्धिक सम्मान करता हुआ भी, आपके ईश महत्वपूर्ण गुण से शिक्षा लेता हुआ भी अपने आपको धोखा देने के मुर्खता न कर बैठू | आप लोगो ने मेरा जो परिचय दिया है,यह तोह आपके सदभाव तथा सदाचार का पवित्र परिचय है | मेरा यथार्थ परिचय तोह मुझको है और वह यह है के जगत में जो करोडो मनुष्य है , उन्ही से में भी एक हु | जैसे उनमे अनेक दुर्बलताए भरी है, वैसे ही मुझमे भी है | में उनसे किसी भी बात में बढ़कर नहीं हु | हा इतना अवस्य है के प्राणिमात्र के सहज सुहृद श्री भगवान् के अनन्त कृपा मुझ पर है; वह कृपा तोह सभी पर असीम है, उनकी कृपा से मुझे उस कृपा के दर्शन होते है | पर इसमें भी अकारण कृपालु भगवान् का ही महत्व है | मेरा क्या है ? *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

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