मान बड़ाई - मीठा विष
आप लोगो ने मुझे माला पहनाई, सुगन्धित पुष्पों के सुन्दर हार पहनाये - यह आपकी बड़ी ही कृपा है | जिस समय में हार पहन रहा था , अपनी प्रसंसा सुन रहा था, उस समय मेरे मन में आया के हम गीता जी में रोज पढ़ते है - 'तुल्यानिन्दतंस्तुति: |' तोः इस प्रशंसा तथा फूलो के हारो के स्थान पर गलिया सुनने को मिलती और पुष्पहार के बदले जूतों के हार मिलते तोह क्या मेरा यही भाव रहता, जो प्रशंसा सुनने में और हार पहने के समय रहा है | यदि नहीं तोह, फिर यह समता के बात पढ़ कर मैंने क्या लाभ उठाया |
सच तोह यह है की में मान बड़ाई का विरोध तोह करता हु, परन्तु मेरे मन में मान बड़ाई की छिपी वासना है, उसी की पूर्ति हो रही है | यदि वासना न होती और सुख न मिलता , मान बड़ाई में गाली और जूते के हार की भावना होती तोह में यहाँ से भाग जाता और आप मुझे न तोह हार पहना सकते , न मेरी प्रशंसा हे कर पाते | पर यह मेरी दुर्बलता है | आप लोगो का तोह स्लाघ्य गुण ही है | हमारे स्वामी रामसुख दास जी तथा स्वामी चक्रधर जी हार नहीं पहनते तोह उन्हें कौन पहना सकता है ? कौन कह सकता है मेरे मान बड़ाई का विरोध करने में भी मान बड़ाई छिपी वासना काम न कर रही है |
दूसरी बात है - हार में व्यर्थ खर्च की | यह हार किसी भी काम में नहीं आते | एक बार पहने की उतार कर रख दिए | इनसे भगवत पूजन या देव पूजन होता तोह इनकी कुछ सार्थकता थी | नहीं तोह यह सुन्दर पुष्प वाटिका के शोभा बढ़ाते | हमर देश अभ भी बड़ा दरिद्र है जहा करोडो भाई बहिन भरपेट भोजन नहीं पाते , वह तोह अच्छा खाना पहनना , अच्छे मकानों में रहना , गलीचो और सोफों पर बैठना ही अनुचित है , फिर पुष्प हारो में पैसा कर्च करना तोह उचित कैसे कहा जा सकता है | यह मेरा भी दोष है | में क्या कहू |
अब रही छाया चित्र (फोटो ) की बात | सो हाड मॉस के इस सरीर का चित्र क्या महत्व रखता है | चित्र तोह भगवान् या संतो केलाभ्दायक होते है | मुझ जैसे मनुष्यों का चित्र उतरवाना तोह सर्वथा उपहासास्पद ही है |
महाभारत में भगवानने अर्जुन को उपदेश दिया था के बड़ो के मुह पर उनकी निंदा करना उनकी हत्या करना है और अपन मुह से अपनी बड़ाई करना आत्महत्या है | यह बड़ा ही गहिर्त कार्य है | जैसे अपने मुख से बड़ाई करना आत्महत्या है , ऐसे ही अपने कानो से बड़ाई सुनना भी आत्महत्या के सदर्श है | पर यह आत्महत्या तोह हम बड़े सोंक से करते है | क्या कहा जाये |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप , स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो , जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण , उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं – विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है , उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क
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