भजन क्यों नहीं होता ?
भगवान् एक है, उन्ही से अनंत जगत की- जगत के समस्त चेतना चेतन भूतो के उत्पत्ति हुई है , उन्ही में सबका निवास है ,वही सबमे सदा सर्वदा व्याप्त है, अत एव उनकी भक्ति का, उनके ज्ञान का और उनकी प्राप्ति का अधिकार सभी को है | किसी भी देश , जाती धर्म,वर्ण,वर्ग का कोई भी मनुष्य -स्त्री पुरुष अपनी अपनी विसुध पद्दति से भगवान् का भजन कर सकता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है |
परन्तु भजन में एक बड़ी बाधा है - भगवान् में अविस्वाश और संसार के भोगो में विश्वास , बस इसी कारन - इसी मोह या अविद्या के जाल में फशा हुआ मनुष्य भगवान् का कभी स्मरण नहीं करता और भोग विषयों के लिए विभिन्न प्रकार के कुकार्य करने में अपने अमूल्य जीवन को खोकर आगे के भयानक दुखभोग के अचूक साधन को उत्पन्न कर लेता है | मनुष्य में कमजोरी होना आश्चर्य नहीं , वह परिस्थिथि वश पाप कर्म भी कर सकता है, परन्तु यदि उसका भगवान् का विश्वास है, भगवान् के सौहार्द और उनकी कृपा पर अटूट और अनन्य श्रधा है तोह वह भगवान् का आश्रय लेकर पाप समुद्र से उबर सकता है | और भगवान् के सुखद गोद को प्राप्त कर सकता है | परन्तु जो भोगो को ही जीवन का एकमात्र धी और सुख का परम साधन मान कर उन्ही का आश्रय ले दिन रात उन्ही के चिंतन, मनन, और उन्ही की प्राप्ति के प्रत्यत्न में तलीन रहता है, उसका जीवन तोह पापमय बन जाता है ,वह कभी भगवान् को भजता ही नहीं |
भगवान् ने गीता में दो तरह के पापियो का वर्णन किया है |
'वे पापकर्म करने वाले मसुया तोह मुझको (भगवान् को ) भजते ही नहीं, जो मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य (भगवतप्राप्ति ) को भूलकर प्रमाद तथा विषय सेवन में लगे रहने की मूढ़ता को स्वीकार कर चुके है , जो विस्याशक्ति तथा विसय्कामना के वश होकर नीच कर्मो में ही लगे रहते है और अपने मानव जीवन को अदाहम बना चुके है , माया के द्वारा जिनका विवेक हरा जा चुका है और जो असुरो के भाव - काम, क्रोध , लोभादी के आश्रय लेकर जीवन को आसुरी बना चुके है |' (गीता ७\२५)
ऐसे लोग न तोह भगवान् में स्रध्हा रखते है और न भजन के ही आवस्यकता सम्जहते है , वे दिन रात नए नए पाप कर्मो में प्रवर्त होते रहते है, विविध प्रकार के पाप करके गौरव का अनुभव करते और सफलता का अभिमान करते है एवं पापो को ही जीवन का सहारा मानकर उतरोतर गहरे भव समुद्र में डूबते है |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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