जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, अगस्त 19, 2012

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

 १३ भगवन् ! स्वास्थ्य , धन-सम्पति , पद-अधिकार, यश . कीर्ति , परिवार , संतान , लोक परलोक, आदि आदि किसी भी वस्तु या स्थिति में मेरा ममत्व कभी न जागे । कोई भी वास्तु मिली हुयी हो तो उसे तुम्हारी समझकर उसकी एक ईमानदार और विश्वासी सेवक या स्वामी के द्वारा नियुक्त व्यवस्थापक की भांति देख-रेख करूँ और तुम्हारे इच्छानुसार ही तुम्हारी सेवा में ही उसका उपयोग करूँ , अपनी समझकर दान-भोग नहीं और इन सबके संग्रह-संचय में मोहवस कभी भी तुम्हारी और तुम्हारे तत्वज्ञ ऋषि-मुनियों की शास्त्र-वाणी के विरुद्ध कोई विचार या क्रिया कभी न हो ।

१४ भगवन् ! किसी भी वास्तु का उपार्जन और संरक्षण केवल तुम्हारी सेवा के लिए ही जो , भोग के लिए कदापि नहीं । तुम्हारे प्रसाद रूप में मैं अपने लिए उतनी ही वस्तु का उपयोग करूँ, जो जीवन निर्वाह के लिए न्यून-से-न्यून रूप से आवश्यक हो । 

१५ भगवन् ! किसी भी वस्तु पर मैं कभी अपना अधिकार न मानूँ । तुम्हारी दी हुयी वस्तु को तुम्हारी आज्ञानुसार तुम्हारी सेवा में लगाने के लिए ही उसकी देख-भाल करता रहूँ और निरभिमान रहकर तुम्हारी सेवा में यथायोग्य लगता रहूँ ।

१६ भगवन् ! तुम्हारे प्रेमी भक्तों में. तुम्हारे तत्त्व को जानने वाले ज्ञानियों में , तुम्हारी प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करने वालों में, तुम्हारी प्रसन्नता के लिए योग-साधना करने वालों में और प्रेम पूर्वक तुम्हारा नाम गुणगान करनेवाले भावुकों में मेरी श्रद्धा-भक्ति बनी रहे और यथासाध्य उनकी विनम्र सेवा करने का अवसर मिले तो मैं अपने को धन्य समझूँ । उनके चरणों में सदा मेरा विनीत भाव और पूज्यभाव बना रहे ।

१७ भगवन् ! जगत के सभी स्वरूपों में और सभी परिवर्तनों में निरन्तर तुम्हारी लीला के दर्शन हों । अनुकूलता-प्रतिकूलता जनित सुख-दुःख की कल्पना ही न उठे और लीला-दर्शन-जनित आनन्द में मैं नित्य मुग्ध बना रहूँ । सारे द्वंद्वों को तुम्हारी लीला में आत्मसात कर ले । प्रसूति गृह की  मंगलमयी दीप-शिखामें और चिता की अग्नि-ज्वाला में समान भाव से तुम्हारी लीला के मंगलमय दर्शन हों ।

१८ भगवन् ! कामना, वासना , लालसा, इच्छा , स्पृहा , अपेक्षा, अभिलाषा, आदि सब केवल तुम्हारे मधुर मंजुल चरण युगलों की अनन्य प्रीतिमें ही नियुक्त रहें, किसी अन्य विषय की और कभी जायँ ही नहीं, या इनके लिए तुम्हारे मंगलमय चरण-युगलों को छोड़कर अन्य किसी वस्तु या स्थिति का अस्तित्व न रह जाय ।
 
प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से कोड- 368 श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )

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