१३ भगवन् ! स्वास्थ्य , धन-सम्पति , पद-अधिकार, यश . कीर्ति , परिवार , संतान , लोक –परलोक, आदि आदि किसी भी वस्तु या स्थिति में मेरा ममत्व कभी न जागे । कोई भी वास्तु मिली हुयी हो तो उसे तुम्हारी समझकर उसकी एक ईमानदार और विश्वासी सेवक या स्वामी के द्वारा नियुक्त व्यवस्थापक की भांति देख-रेख करूँ और तुम्हारे इच्छानुसार ही तुम्हारी सेवा में ही उसका उपयोग करूँ , अपनी समझकर दान-भोग नहीं और इन सबके संग्रह-संचय में मोहवस कभी भी तुम्हारी और तुम्हारे तत्वज्ञ ऋषि-मुनियों की शास्त्र-वाणी के विरुद्ध कोई विचार या क्रिया कभी न हो ।
१४ भगवन् ! किसी भी वास्तु का उपार्जन और संरक्षण केवल तुम्हारी सेवा के लिए ही जो , भोग के लिए कदापि नहीं । तुम्हारे प्रसाद रूप में मैं अपने लिए उतनी ही वस्तु का उपयोग करूँ, जो जीवन निर्वाह के लिए न्यून-से-न्यून रूप से आवश्यक हो ।
१५ भगवन् ! किसी भी वस्तु पर मैं कभी अपना अधिकार न मानूँ । तुम्हारी दी हुयी वस्तु को तुम्हारी आज्ञानुसार तुम्हारी सेवा में लगाने के लिए ही उसकी देख-भाल करता रहूँ और निरभिमान रहकर तुम्हारी सेवा में यथायोग्य लगता रहूँ ।
१६ भगवन् ! तुम्हारे प्रेमी भक्तों में. तुम्हारे तत्त्व को जानने वाले ज्ञानियों में , तुम्हारी प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करने वालों में, तुम्हारी प्रसन्नता के लिए योग-साधना करने वालों में और प्रेम पूर्वक तुम्हारा नाम गुणगान करनेवाले भावुकों में मेरी श्रद्धा-भक्ति बनी रहे और यथासाध्य उनकी विनम्र सेवा करने का अवसर मिले तो मैं अपने को धन्य समझूँ । उनके चरणों में सदा मेरा विनीत भाव और पूज्यभाव बना रहे ।
१७ भगवन् ! जगत के सभी स्वरूपों में और सभी परिवर्तनों में निरन्तर तुम्हारी लीला के दर्शन हों । अनुकूलता-प्रतिकूलता जनित सुख-दुःख की कल्पना ही न उठे और लीला-दर्शन-जनित आनन्द में मैं नित्य मुग्ध बना रहूँ । सारे द्वंद्वों को तुम्हारी लीला में आत्मसात कर ले । प्रसूति गृह की मंगलमयी दीप-शिखामें और चिता की अग्नि-ज्वाला में समान भाव से तुम्हारी लीला के मंगलमय दर्शन हों ।
१८ भगवन् ! कामना, वासना , लालसा, इच्छा , स्पृहा , अपेक्षा, अभिलाषा, आदि सब केवल तुम्हारे मधुर मंजुल चरण युगलों की अनन्य प्रीतिमें ही नियुक्त रहें, किसी अन्य विषय की और कभी जायँ ही नहीं, या इनके लिए तुम्हारे मंगलमय चरण-युगलों को छोड़कर अन्य किसी वस्तु या स्थिति का अस्तित्व न रह जाय ।
प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से कोड- 368 – श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )
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