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भगवान् की चाह





            न तो घर छोड़ने से ही भगवत्प्राप्ति होती है और न घर में फँसे रहने से ही l भगवत्प्राप्ति होती है - भगवान् को पाने की तीव्र आकांक्षा  से प्रेरित होकर की जाने वाली अखंड साधना से l इस साधना से पहले आवश्यकता है भगवान् की चाह होनी l   चाह इतनी बढे कि उसके सामने अन्य सारी इच्छाएं दब जाएँ - मर जाएँ l किसी भी वस्तु में मन न लगे - दिल न अटके l फिर चाहे घर में रहें या घर से बाहर l कहीं रहा जाये, जब तक शरीर है तब तक शरीर से कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा l ऐसी निपुणता के साथ  कि किसी को जरा भी असंतोष न हो l पिता समझे ऐसा सुपुत्र किसी के नहीं है, माता समझे मेरा बेटा सब से बढ़कर सुपूत है l भाई समझे कि यह तो राम या भरत-सा भाई है; स्त्री समझे कि ऐसा स्वामी मुझे बड़े पुण्य से मिला है l स्वामी समझे - ऐसी पतिव्रता साध्वी स्त्री तो बस एक यही है l इसी प्रकार हमारे व्यवहार से - जिनसे भी हमारा काम पड़े छोटे-बड़े -सभी संतुष्ट और परितृप्त हों, सभी हमसे अमृत लाभ करें l परन्तु हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य पर लगी रहे l हमारा सोना-जागना, खाना-पीना, कहना-सुनना, लेना-देना, रोना-हँसना सभी हो केवल भगवान् के लिए - भगवान् की प्राप्ति के लिए l अपने लिए कुछ भी न हो l अपने को भी श्रीभगवान के ही अर्पण कर दिया जाये l फिर किसी भी स्थिति में न दुःख होगा, न चिन्ता व्यापेगी और न संसार के किसी काम में अड़चन आयेगी l मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, हँसना-रोना सभी भगवान् की लीला के मधुर अंग हो जायेंगे l इस प्रकार का अभ्यास करके देखिये l कुछ ही दिनों में अपूर्व शान्ति और आनन्द का अनुभव होगा l पाप-ताप तो अपने-आप ही दूर हो जायेंगे l

लोक-परलोक-सुधार-१ (३५३)                      

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