भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है l आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवक मात्र हैं l इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए l दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र कभी विमुख न लौटें l यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है l अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए, और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की सेवा होने में 'निमित्त' बन रहे हैं l
आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए l न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं l धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता l नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं l धन या पद का न तो कभी घमंड करना चाहिए और न धन के या पद के बल पर किसी को अपने से नीचा मान कर उसका तिरस्कार करना चाहिए l बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसी को कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े - सिर न झुकाना पड़े l आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है l वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है l
लोक-परलोक-सुधार-१ (३५३)
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