भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु उन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, ऐसा सोचकर वे अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे - 'पिताजी ! माताजी ! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिए सर्वदा उत्कंठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगंड और किशोर अवस्था का सुख हम से नहीं पा सके l दुर्देववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य ही नहीं मिला l पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं l तब कहीं जाकर यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कि प्राप्ति का साधन बनता है l यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता कि सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता l जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप कि शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं l जो पुरुष समर्थ हो कर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, संतान, गुरु, ब्राह्मण, और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता - वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान ही है l पिताजी ! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गए, क्योंकि कंस के भय से सदा उद्विगन्चित्त रहने के कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे l मेरी माँ और मेरे पिताजी ! आप दोनों हमें क्षमा करें l हाय ! दुष्ट कंस ने आपको इतने-इतने कष्ट दिए , परन्तु हम परतंत्र रहने के कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके' l
अपनी लीला से मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्री हरि कि इस वाणी से मोहित हो देवकी-वासुदेव ने उन्हें गोद में उठा लिया और ह्रदय से चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया l वे स्नेह-पाश से बंधकर पूर्णत: मोहित हो गए और आंसुओं की धारा से उनके अभिषेक करने लगे l यहाँ तक कि आंसुओं के कारण गला रुंध जाने से वे कुछ बोल भी न सके l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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