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नि:स्वार्थ प्रेम और सच्चरित्रता की महिमा





                   संसार का मिलना बिछुड़ने के लिए ही हुआ करता है l जहाँ राग होता है, वहां विछोह में दुःख और स्मृति में सुख-सा प्रतीत होता है l जहाँ द्वेष होता है, वहां विछोह में सुख और स्मृति में दुःख होता है l राग-द्वेष से परे नि:स्वार्थ प्रेम की एक स्थिति होती है, वहां माधुर्य-ही-माधुर्य है  l  स्वार्थ ही विष और त्याग ही अमृत है l जिस प्रेम  में जितना स्वार्थ-त्याग होता है, उतना ही उसका स्वरुप उज्जवल होता है l प्रेम का वास्तविक  स्वरुप तो त्यागपूर्ण है, उसमें तो केवल प्रेमास्पद का सुख-ही-सुख है l अपने सुख की तो स्मृति ही नहीं है l 
                   धन कमाने में उन्नति हो यह तो व्यवहारिक दृष्टि से वांछनीय है ही l  परन्तु जीवन का उद्धेश्य यही नहीं है l जीवन का असली उद्धेश्य महान चरित्रबल को प्राप्त करना है, जिससे भगवत्प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है l  धन, यश, पद, गौरव, मान, संतान - सब कुछ हो, परन्तु यदि मनुष्य में सच्चरित्रता नहीं है, तो वह वस्तुत:मनुष्यत्वहीन है l सच्चरित्रता ही मनुष्यत्व है l 
                   धन कमाने की इच्छा ऐसी प्रबल और मोहमयी न होनी चाहिए जिससे न्याय और सत्य पथ छोड़ना पड़े, दूसरों का न्याय स्वत्व छीना जाये और गरीबों की रोटी पर हाथ जाये l जहाँ विलासता अधिक होती है . खर्च बेशुमार होता है, भोगासक्ति बड़ी होती है, झूठी प्रेस्टिज का भार चढ़ा रहता है, वहां धन की आवश्यकता बहुत बढ़ जाती है और वैसी हालत में न्यायान्याय का विचार नहीं रहता l गीता में आसुरी सम्पत्ति के वर्णन में भगवान् ने कहा है - 'कामोपभोग-परायण पुरुष अन्याय से अर्थोपार्जन करता है  l ' बुद्धिमान पुरुष को इतनी बातों पर ध्यान रखना चाहिए - विलासिता न बढे, फिजूलखर्ची न हो, जीवन यथासाध्य सादा हो , इज्जत का ढकोसला न रखा जाये, भोगियों की नक़ल न की जाये और परधन को विष के समान समझा जाये l इन बातों को ध्यान में रखकर सत्य की रक्षा करते हुए ही धनोपार्जन की चेष्टा करनी चाहिए और यदि धन प्राप्त हो तो उसे भगवान् की चीज़ मानकर अपने निर्वाहमात्र का उसमें अधिकार समझकर शेष धन से भगवान् की सेवा करनी चाहिए l   सेवा करके अभिमान नहीं करना चाहिए l  हो सके तो नित्य कुछ सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय और भगवद्भजन भी अवश्य करना चाहिए l 

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                         

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