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महापुरुष और महात्मा





अब आगे............
     

        आप के मन में भगवद्भजन के फलस्वरूप कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है, आप भजन के लिए ही भजन करना चाहते हैं यह बहुत ही ऊँची बात है l   बदला पाने की इच्छा ही निर्बलता,  शिथिलता और व्यभिचार की उत्पत्ति करती  है l  भजन यदि भजन बढ़ने के लिए ही  -  भजन उत्तरोत्तर विशुद्ध और अनन्य होने के लिए ही किया जाये तो वैसा भजन बहुत ही ऊँची चीज़ होती है l  वैसे भजन के सामने मुक्ति भी तुच्छ समझी जाती है l  परन्तु ऐसे भजन भी भगवत्कृपा के बल से ही होता है l  भजन में कहीं अहंकार न आने पावे l  अहंकार से बड़ी बाधा उत्पन्न होती है l  भजन तो आसक्ति होनी चाहिए l
         आप भजन से उकताते नहीं हैं यह बड़ी अच्छी बात है l उकताता वही है जो जल्दी ही किसी फल की इच्छा से भजन करता है या जिसके भजन में श्रद्धा और अनुराग का आभाव होता है l  श्रद्धा और अनुराग के साथ निष्काम भजन करनेवाला क्यों उबने लगा l
         बस, करते जाइये;  कभी थकिये मत, परन्तु किसी बात की अपेक्षा न रखिये l  प्रतीक्षा करनी ही हो तो कीजिये एकमात्र भगवत्कृपा की l विश्वास कीजिये - भगवत्कृपा तो आप पर पूर्ण और अनन्त है ही , वह तो सभी पर है, आप जितना-जितना उसका अनुभव कर पाते हैं, उतना-उतना ही आप के भजन बढ़ता है l और जितना -जितना विशेष अनुभव करेंगे, उतनी-उतनी ही आपकी निर्भरता, निर्भयता और भजनशीलता बढती चली जाएगी l साधन में अपनी त्रुटि न हो और फल की कोई भी शर्त न रहे, तो साधना सच्चा परमार्थ है l  भगवान् की सहज कृपा का प्रवाह हमारी ओर निरन्तर आ रहा है l  हम बीच में अपनी शर्तें रखकर उस प्रवाह की स्वाभाविक कल्याणमयी गति में बाधक बन जाते हैं l वह जैसे आता है उसे वैसे ही आने दिया जाये l सब उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए l उन कृपामय का ही चिन्तन अनवरत करना चाहिए l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३) 

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