सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

माता-पिता का अपमान पाप है





अब आगे.........


           माता-पिता के उपकारों से मनुष्य का रोम-रोम दबा हुआ है l  उनके विपरीत आचरण करना भरी कृतज्ञता और विश्वासघात है l कृतघ्न और विश्वासघाती के लिए कोई प्रायश्चित  ही नहीं है l  वह इतना भंयकर पाप है कि प्रायश्चित से शान्त नहीं होता l   इस पाप के प्रतिकार के दो ही उपाय है - अपनी भूलों के लिए सच्चे ह्रदय से पश्चाताप हो और माता-पिता कि ओर  से क्षमा मिल जाये l क्षमा जबरदस्ती नहीं, उन्हें सेवा से प्रसन्न करके प्राप्त की जा सकती है l   जब पुत्र पिता-माता की इतनी सेवा-शुश्रूषा करे कि उससे उनका रोम-रोम उसके लिए आशीर्वाद दे और उनके अन्त:करण में पुत्र के लिए स्वभावत:ही मंगल-कामना होती रहे, तब उस पुत्र का जन्म सार्थक मानना चाहिए l यों तो माता-पिता स्वभाव से ही पुत्र की भलाई चाहते, करते और विचारते हैं; परन्तु पुत्र  तभी उनके ऋण से मुक्त होता है, जब  सेवा और आज्ञापालन से उन्हें निरन्तर संतुष्ट रखे l  शास्त्रों का वचन है - 'पिता के जीते-जी उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करे, उनकी मृत्यु हो जाने पर प्रतिवर्ष मृत्युतिथि पर उनके निमित्त एकोदृष्ट श्राद्ध करके ब्राह्मणों को पूर्णतया भोजन से तृप्त  करे और गया में पिण्डदान दे - इन तीन बातों से पुत्र का 'पुत्र' नाम सार्थक होता है l '
           किसी भी पाप के लिए पश्चाताप की आग में जलना उत्तम प्रायश्चित है l किये पर पछतावा हो, आगे वैसा कर्म न करने का दृढ संकल्प हो और भगवान् से प्रार्थना की जाये, उनकी शरण में जाकर उन्हीं की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म का अनुष्ठान किया जाये तो सभी पाप भस्म हो जाते है l भगवान् के नाम का जप पापों का अमोघ प्रायश्चित है l माता-पिता को गाली देना तो इससे भी बड़ा अपराध है l अत: इसके लिए भी यही उचित है कि अपराध के अनुसार दो-एक दिन उपवास किया जाये, माता-पिता के चरणों पर पड़कर किये हुए अपराध के लिए क्षमा माँगी जाये और भविष्य में फिर ऐसी धृष्टता न करने का दृढ संकल्प लेकर सदा अपनी सेवाओं से माता-पिता को संतुष्ट रखा जाये l  साथ ही भगवन्नाम-जप और भगवत प्रार्थना भी चलती रहे l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)           
गीता प्रेस, गोरखपुर

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,