'रास' शब्द को सुनकर हम लोग प्राय: रास-मण्डलियों द्वारा जो रासलीला होती है, इसी की बात सोचते हैं, दृष्टि उधर ही जाती है L अवश्य ही यह रासलीला भी उसका अनुकरण ही है, उसी को दिखाने के लिए है, इसलिए आदरणीय है l परन्तु भगवान् का जो दिव्य रास है, उसकी विलक्षणता थोड़ी-सी समझ लेनी चाहिए l
'रास' शब्द का मूल है - 'रस' और रस है भगवान् का रूप - 'रसो वै स:l ' अतएव वह एक ऐसी दिव्य क्रीडा होती है, जिसमें एक ही रस अनेक रसों के रूप में अभिव्यक्त हो कर अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करता है - वह एक ही रास अनन्त रसरूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, स्वयं ही आस्वादक, स्वयं ही लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में लीलायमान हो जाता है l और तब एक दिव्य लीला होती है - उसी का नाम 'रास' है l रास का अर्थ है - 'लीलामय भगवान् की लीला' ; क्योंकि लीला लीलामय भगवान् का ही स्वरुप है, इसलिए 'रास' भगवान् की स्वरुप ही है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं l भगवान् की यह दिव्य लीला तो नित्य चलती रहती है और चलती रहेगी, इसका कहीं कोई छोर नहीं l कब से आरंभ हुई और कब तक चलेगी - यह कोई बता ही नहीं सकता l कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमारी इस भूमि में भी 'रासलीला' का अवतरण होता है l यह अवतरण भगवान् श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय हुआ था l उसी का वर्णन श्रीमद भागवत में 'रासपंचाध्यायी'के नाम से है l पाँच अध्यायों में उसका वर्णन है l इन पाँच अध्यायों में सब से पहले वंशीध्वनि है l वंशी ध्वनि को सुनकर प्रेमप्रतिमा गोपिकाओं का अभिसार है l श्रीकृष्ण के साथ उनका वार्तालाप है, दिव्य रमण है, श्रीराधा जी के साथ श्रीकृष्ण का अन्तर्धान है, पुन: प्राकट्य है l फिर गोपियों द्वारा दिए हुए वसनासन पर भगवान् का विराजित होना है l गोपियों के कुछ कूट प्रश्नों का, गूढ़ प्रश्नों का, प्रेम-प्रश्नों का उत्तर है l फिर रास-नृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वन-विहार - इस प्रकार अंत में परीक्षित के संदेहान्वित होने पर बंद कर दिया जाता है - रास का वर्णन l
मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)