जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, अक्तूबर 23, 2012

रास-रहस्य[त्याग की पराकाष्ठा]





अब आगे.....

        भला, शरद ऋतु में मल्लिका कहाँ से प्रफुल्लित हुई ? परन्तु इसके विचित्र भाव हैं और विचित्र अर्थ हैं l  यह अनुभव की वस्तु है, कुछ कहा नहीं जा सकता l किन्तु इतनी बात तो जान लेनी चाहिए कि यह जो कुछ है - सब भगवान् में है और भगवान् का है l  जड़ की सत्ता जीव की दृष्टि में होती है l  अज्ञान युक्त हमारी आँखों में है - उसकी सत्ता l भगवान् की दृष्टि में जड़ की सत्ता ही नहीं है l  देह और देही का जो भेदभाव है, वह प्रकृति के राज्य में है, जड़ राज्य में है l अप्राकृतिक लोक में, जहाँ प्रकृति भी चिन्मय है, वहाँ सब कुछ चिन्मय है l  वहाँ अचित की कहीं-कहीं जो प्रतीति होती है - वह केवल चिद्विलास अथवा भगवान् की लीला की सिद्धि के लिए होती है  l वस्तुत: वहाँ अधिक कुछ है ही नहीं l  इसलिए होता यह है कि जीव होने के कारण हमारा मस्तिष्क, क्योंकि जड़-राज्य में है, इस लिए जड़-राज्य में हम प्राकृतिक वस्तुओं को जड़ रूप में ही देखते हैं l  इसीलिए कभी-कभी हम अप्राकृतिक वस्तु का भी विचार करते हैं, जैसे - भगवान् का दिव्य लीला-प्रसंग का, भगवान् की रासलीला इत्यादि का, जो सर्वथा अप्राकृतिक चिन्मय वस्तु हैं, तो हमारी यह बुद्धि जड़ में प्रविष्ट रहने के कारण वहाँ भी जड़ को ही देखती है l  इस प्रकार अपनी जड़-राज्य की धारणाओं को, कल्पनाओं को, क्रियाओं को लेकर हम उसीका दिव्य राज्य में भी आरोप कर लेते हैं l अपनी सड़ी-गली-गन्दी विषय-विष-कर्दम भरी आँखों से हम वही सड़ी-गली-गन्दी चीज़ों की, हाड़-मांस-रक्त के शरीर की - जिस में विष्ठा-मूत्र-श्लेष्म भरा है कल्पना करते हैं - इसी को देखते हैं l  चिन्मय राज्य में हम प्रवेश ही नहीं कर पाते और इसलिए दिव्य-रास में भी हम लोग इन जड़ स्त्री-पुरुषों की और उनके मिलन की ही कल्पना करते हैं l  इनटू यह बात सर्वदा ध्यान में रखने की है कि भगवान् का यह रास परम उज्जवल, दिव्य रस का प्रकाश है l जड़-जगत की बात तो दूर रही, हम यहाँ तक कह दें तो अत्युक्ति नहीं होगी कि ज्ञान या विज्ञानं रूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता l इतना ही नहीं, जो साक्षात् चिन्मय तत्व है, उस परम दिव्य, चिन्मय तत्व में भी इस दिव्य रस का लेशमात्र नहीं देखा जाता l

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]