अब आगे.....
पर उस विषम वियोग-विष में उस विष के साथ एक बड़ी विलक्षण अनुपम वस्तु लगी रहती है - भगवान् की मधुरातिमधुर अमृतस्वरूप चिन्मयी स्मृति l भगवान् की यह स्मृति नित्यानंत सुखस्वरूप भगवान् को अन्दर में ला देती है l फिर वह विष विष नहीं रह जाता l भयानक विष होते हुए भी वह देवलोकातीत भागवत-मधुर विलक्षण अमृत का आस्वादन कराता है l इसलिए भगवान् के मिलन की आकांक्षा के समय भगवान् के जिस अमिलन-जनित ताप में जो परमानन्द है, वह परमानन्द किसी दूसरे विषय के अमिलन पर उसके मिलने की आकांशा में नहीं l इस ताप में परमानन्द हुए बिना रह नहीं सकता, क्योंकि भगवान् परमानन्दस्वरूप हैं l भोग-वस्तुएं सुखस्वरूप नहीं हैं l इसलिए उनका अमिलन कभी सुखदायी नहीं हो सकता, वह दुःखप्रद ही रहेगा l अतएव इस रस की साधना में, प्रेम की साधना में प्रारंभ से ही भगवान् का सुखस्वरूप साधक के राग का विषय होता है l भगवान् का कण-कण आनंदमय है, रसमय है l वहां उस रसमयता के अतिरिक्त, उस रस के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कोई भी सत्ता नहीं है, भाव नहीं है, अस्तित्व नहीं है, होनापन नहीं है l वहां प्रत्येक रोम-रोम में केवल भगवत स्वरुपता भरी है और भगवत स्वरुपता का परमानन्द उसका स्वाभिविक सहज रूप है l वस्तुत: जहाँ-जहाँ भगवान् की स्मृति है, वहां-वहां भगवद रस का समुद्र लहरा रहा है l अतएव आनंदमय भगवान् को प्राप्त करने के लिए, रस रूप भगवान् को प्राप्त करने के लिए, प्रेम के द्वारा प्रेमास्पद भगवान् को प्राप्त करने के लिए, भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिए जिस प्रेम-साधन की - रस साधन की निष्ठां होती है, आरम्भ से ही उसमें वह परम सुख का - परम माधुर्य का आस्वादन मिलता है l तो फिर भगवान् के विरह में दुःख का होना क्यों माना गया है ? विष क्यों बताया गया है ? उसमें कालकूट से भी अधिक विष की कटुता क्यों कही गयी है ? इस उत्तर यह है कि वह भगवान् के मिलन की आकांक्षा, संसार के भोगों को प्राप्त करने की आकांक्षा से अत्यंत विलक्षण होती है l
मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]
पर उस विषम वियोग-विष में उस विष के साथ एक बड़ी विलक्षण अनुपम वस्तु लगी रहती है - भगवान् की मधुरातिमधुर अमृतस्वरूप चिन्मयी स्मृति l भगवान् की यह स्मृति नित्यानंत सुखस्वरूप भगवान् को अन्दर में ला देती है l फिर वह विष विष नहीं रह जाता l भयानक विष होते हुए भी वह देवलोकातीत भागवत-मधुर विलक्षण अमृत का आस्वादन कराता है l इसलिए भगवान् के मिलन की आकांक्षा के समय भगवान् के जिस अमिलन-जनित ताप में जो परमानन्द है, वह परमानन्द किसी दूसरे विषय के अमिलन पर उसके मिलने की आकांशा में नहीं l इस ताप में परमानन्द हुए बिना रह नहीं सकता, क्योंकि भगवान् परमानन्दस्वरूप हैं l भोग-वस्तुएं सुखस्वरूप नहीं हैं l इसलिए उनका अमिलन कभी सुखदायी नहीं हो सकता, वह दुःखप्रद ही रहेगा l अतएव इस रस की साधना में, प्रेम की साधना में प्रारंभ से ही भगवान् का सुखस्वरूप साधक के राग का विषय होता है l भगवान् का कण-कण आनंदमय है, रसमय है l वहां उस रसमयता के अतिरिक्त, उस रस के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कोई भी सत्ता नहीं है, भाव नहीं है, अस्तित्व नहीं है, होनापन नहीं है l वहां प्रत्येक रोम-रोम में केवल भगवत स्वरुपता भरी है और भगवत स्वरुपता का परमानन्द उसका स्वाभिविक सहज रूप है l वस्तुत: जहाँ-जहाँ भगवान् की स्मृति है, वहां-वहां भगवद रस का समुद्र लहरा रहा है l अतएव आनंदमय भगवान् को प्राप्त करने के लिए, रस रूप भगवान् को प्राप्त करने के लिए, प्रेम के द्वारा प्रेमास्पद भगवान् को प्राप्त करने के लिए, भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिए जिस प्रेम-साधन की - रस साधन की निष्ठां होती है, आरम्भ से ही उसमें वह परम सुख का - परम माधुर्य का आस्वादन मिलता है l तो फिर भगवान् के विरह में दुःख का होना क्यों माना गया है ? विष क्यों बताया गया है ? उसमें कालकूट से भी अधिक विष की कटुता क्यों कही गयी है ? इस उत्तर यह है कि वह भगवान् के मिलन की आकांक्षा, संसार के भोगों को प्राप्त करने की आकांक्षा से अत्यंत विलक्षण होती है l
मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]