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जगत को भगवत-रूप देखने का प्रयत्न कीजिये


        न तो सबकी प्रकृति एक -सी है, न रूचि और बुद्धि ही l लोगों की कार्यपद्धति भी भिन्न-भिन्न होती है l  अतएव सब लोग एक-सा काम, एक ही प्रणाली से करें, यह सम्भव नहीं l वस्तुतः कर्म में कोई ऊँचा-नीचापन है भी नहीं l  ब्राह्मण यज्ञ करता है , किसान खेती करता है l  दोनों ही अपने-अपने स्थान में महत्त्व रखते हैं l जैसे नाटक के पात्र राजा से लेकर भंगी तक का अपना-अपना अभिनय सफलतापूर्वक करते हैं, पर वे करते हैं - अहंता, आसक्ति, ममता-कामना से रहित होकर केवल नाटक के स्वामी की प्रसन्नता के लिए अपने-अपने स्वाँग के अनुसार, इसी प्रकार इस जगन नाटक में हम सभी पात्र हैं, सबको अपने-अपने जिम्मे का अभिनय करना है भली भाँति, सुचारुरूप से l  हमें चाहिए कि हम अपनी प्रकृति, रूचि तथा स्वाँग के अनुसार आसक्ति, ममता, कर्माग्रह, कामना आदि न रखते हुए प्राप्त कर्म को कर्तव्य बुद्धि से करते रहें - उत्साह के साथ, शान्तिपूर्वक, हर्ष-शोकरहित होकर, सम्यक प्रकार से, केवल भगवदर्थ -
                   'तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर l l '
        न तो कर्म पूर्ण होने की चिन्ता  रखनी चाहिए और न उसके फल की कामना, कर्म करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए l  भगवान् जैसी बुद्धि दें, उसके अनुसार किसी में भी राग-द्वेष न रखते हुए कर्म करना चाहिए l
       यह निश्चय रखना चाहिए कि भगवान् सब में हैं - सर्वत्र व्यापक हैं, भगवान् में ही सब कुछ है तथा भगवान् ही सब कुछ हैं l  एक ही सत्य को इन तीन रूपों से समझना चाहिए l जब भगवान् ही सब कुछ हैं, तब 'जगत' नामक दूसरी वस्तु कोई रहती ही नहीं, जब भगवान् ही सर्वत्र हैं तो जगत नामक दूसरी वस्तु रहती किस जगह है  ?और जब भगवान् में ही सब कुछ है, तब जगत भी भगवान् में ही समाया है - इन सारी बातों पर गहराई से विचार करने पर मालूम होगा कि जगत-रूप से भगवान् ही अभिव्यक्त हैं, प्रकट हैं या वर्तमान हैं l  एक भगवान् ही विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार से लीलायमान हैं l

सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]                             

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