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अपने विषय में स्वीकारोक्ति


       जिन विचारों और कार्यों को बुरा, अनुचित और अकर्तव्य समझता-बतलाता था, अब उन्हीं को स्वयं कर-करवा रहा हूँ l युक्तिवाद से भले ही उनका औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाये, पर मन तो जानता-समझता ही है l  लोगों  से कहता था कि 'चुपचाप साधन करना है l  अपना प्रचार कभी नहीं करना है, न लौकिक, मान-सामान कभी ग्रहण करना है l  इस प्रकार साधन करनी है सहज स्वाभाविक, जिससे लोगों को पता ही न लगे कि यह भी कोई साधना करता है l  इसके कर्म में भी कोई विशेषता है l ' ऐसा केवल कहता ही नहीं था, यही मानता था, सच्चे हृदय से मानता था और इसी के अनुसार करना चाहता और करता भी था l  बड़ी सरलता से साधना चल रही थी l  मन में शान्ति, उल्लास, एवं सात्विक विचारों की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी l  उस समय मैं प्रवचन नहीं करता था l मित्रों-सज्जनों ने कहा - 'प्रवचन किया करो, मन में अच्छे सात्विक विचार आयेंगे, उनका  मनन होगा तथा लोगों का भी भला होगा आदि' - मैं प्रवचन करने लगा l  पहले-पहले तो लाभ हुआ - लाभ तो अब भी होता ही होगा, क्योंकि प्रवचन तो अच्छे विचारों का ही होता है  - परन्तु कुछ ही समय बाद प्रवचन में रस आने लगा, आसक्ति और ममता सी हो गयी l  कामना जगी - प्रवचन बहुत अच्छा हो, लोगों को अच्छा लगे l  फिर तो यह जिज्ञासा हो  गयी - कितना अच्छा लगा !' लोग प्रशंसा करते तो आनन्द-सा आता l  एक बार प्रसिद्ध गांधीवाद श्री श्रीकृष्णदास जी जाजू प्रवचन में आये l  मैं गीता के अनुसार दान की व्याख्या कर रहा था l उनको वह प्रवचन बड़ा अच्छा लगा l उन्होंने बड़ी सराहना की , मुझे वह प्यारी लगी l  वे जब तक रहे, रोज नियम से आते रहे l  मेरा अब भी वही हाल है l  जब नहीं बोलता था, तब दूसरों के प्रवचन चाव से सुनता था, ग्रहण करता था, सुनने की इच्छा रहती थी l  अब तो सुनाने की इच्छा रहती है, मैं उसना जो सकता हूँ, बहुत अच्छा उपदेश जो कर सकता हूँ, और लोगों को सन्मार्ग पर जो लगा सकता हूँ l  यह अभिमान है या मोह अथवा आत्मप्रचार या कुछ और - अन्तर्यामी ही जानते हैं l

सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]           

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