धर्मपरायण मनुष्य दूसरे का हित मानते हुए ही अपना हित चाहते
है | उन्हें दूसरे के अहित में अपना हित कभी दिखता ही नहीं | पर हित से ही परम गति
प्राप्त होती है | धर्मशील पुरुष हिताहित का विचार करके सत्पुरुषो का संग करता
है,सत्संग से धर्मबुद्धि बढती है और उसके प्रभाव से उसका जीवन धर्ममय बन जाता है |
वह धर्म से ही धन का उपार्जन करता है |वही काम करता है, जिससे सद्गुणों की वृद्धि
हो | धार्मिक पुरुषो से ही उसकी मित्रता होती है | वह अपने उन धर्मशील मित्रो के
तथा धर्म से कमाये हुए धन के द्वारा इस लोक और परलोक में सुख भोगता है | धर्मात्मा
मनुष्य धर्मसम्मत इन्द्रियसुख को प्राप्त करता है, परन्तु वह धर्म का फल पाकर ही
संतुष्ट नहीं हो जाता | वह सत-असत का विचार करके वैराग्य का अवलंबन करता है |
वैराग्य के प्रभाव से उसका चित्त विषयों से हट जाता है | फिर वह जगत को विनाशी समझ
कर निष्काम कर्म के द्वारा मोक्ष के लिये प्रयत्न करता है |
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
शेष अगले ब्लॉग में !!!
भगवच्चर्चा,
हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर,
कोड ८२०, पेज २८८
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