जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, नवंबर 21, 2012

संतोष



संतोष ही परम कल्याण है | संतोष ही परम सुख है | संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है | संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते | संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ  तिनके के समान होता है | विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता | सांसारिक भोग-सामग्री उसे  विष के समान जान पड़ती है | संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है |जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते | जब तक अन्त:करण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण  नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपत्तियां है | संतोषी चित्त निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है | संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है | संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पितर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है | भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवश्य करना चाहिये |   (योगवासिष्ठ)

नारायण        नारायण         नारायण

शेष अगले ब्लॉग में !!!

भगवच्चर्चा,  
हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर, 
कोड ८२०, पेज २८९