संतोष ही परम कल्याण है | संतोष ही परम सुख है | संतोषी को
ही परम शांति प्राप्त होती है | संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते | संसार का
बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ
तिनके के समान होता है | विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष
क्षुब्ध नहीं होता | सांसारिक भोग-सामग्री उसे विष के समान जान पड़ती है | संतोषामृत की मिठास के
सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है |जिसे अप्राप्त की
इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के
सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते | जब तक अन्त:करण संतोष की सुधा-धारा से
परिपूर्ण नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपत्तियां है | संतोषी चित्त निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का
उदय होता है | संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति जगमगाती रहती है,
इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है | संतोषी पुरुष की
सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पितर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य
मानते है | भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का
सम्पादन अवश्य करना चाहिये | (योगवासिष्ठ)
नारायण नारायण नारायण
शेष अगले ब्लॉग में !!!
भगवच्चर्चा,
हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर,
कोड ८२०, पेज २८९
हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर,
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