जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, नवंबर 28, 2012

भगवान् की वस्तु सदा भगवान् की सेवा में लगाते रहिये


        भारतवर्ष में लाखों-करोड़ों व्यक्ति इतने गरीब हैं, जिनको रोज भरपेट भोजन नहीं मिलता, तन ढकने को कपडा नहीं मिलता, दूध, चिकित्सा, आराम का घर आदि तो बहुत दूर की बातें हैं l  फिर आज की भयंकर महँगाई  ने तो मानो प्राणियों पर राक्षसी धावा ही बोल दिया है l इस अवस्था में जिनके पास जो कुछ भी साधन हैं, उनके द्वारा इन अभावग्रस्त प्राणियों की अपने-ही-जैसे प्राण-मन वाले मानवों की सेवा करनी चाहिये  - यह धर्म है और इसकी उपेक्षा बहुत बड़ा पाप है l
          सच तो यह है कि यहीं कुछ भी किसी का नहीं है, सभी भगवान् का है और उसे यथासाध्य आवश्यकतानुसार प्राणिमात्र की सेवा के द्वारा भगवान् की सेवा में लगाना है l  वस्तुतः सभी प्राणी भगवान् की ही अभिव्यक्ति हैं l  अतएव इनकी सेवा में किसी वस्तु का अर्पण करना भगवान् की वस्तु  भगवान् की सेवा में लगाना मात्र  है l  यह ईमानदारी है, कोई महत्व की बात नहीं l श्रीमद्भागवत में देवर्षि नारदजी के वाक्य हैं - जितने से अपना पेट भरे, उतने पर ही मानवों का अधिकार है l जो उससे अधिक पर अपना अधिकार मानता है, उसे दण्ड मिलना चाहिये l '
          देवर्षि नारद के उन शब्दों पर ध्यान दीजिये l  हमारा कुछ है ही नहीं l  उदर-पोषण भर की वस्तु स्वामी ने हमें दी है; इससे अधिक को अपनी वस्तु मानना तो बेईमानी - चोरी है l  हमें यदि भगवान् ने कोई वस्तु  दी है तो वह इसी प्रकार दी है कि जैसे भला मालिक किसी सेवक को ईमानदार  मानकर उसे अपनी वास्तु सँभालकर रखने तथा आवश्यकतानुसार अपनी सेवा में लगाने की लिए देता है, न कि  व्यर्थ खोने या अपनी मानकर यथेच्छ भोगने के लिए l  अतएव जहाँ-जहाँ जिस-जिस वस्तु का अभाव है, वहाँ-वहाँ  भगवान् मानो अपनी उस-उस वस्तु  को माँगते  हैं और जिस-जिस के पास जो-जो वस्तु  है, उसे-उसे वह-वह वस्तु  प्रसन्नचित्त से देनी चाहिये l

सुख-शान्ति का मार्ग [333]