सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भगवान् की वस्तु सदा भगवान् की सेवा में लगाते रहिये


        भारतवर्ष में लाखों-करोड़ों व्यक्ति इतने गरीब हैं, जिनको रोज भरपेट भोजन नहीं मिलता, तन ढकने को कपडा नहीं मिलता, दूध, चिकित्सा, आराम का घर आदि तो बहुत दूर की बातें हैं l  फिर आज की भयंकर महँगाई  ने तो मानो प्राणियों पर राक्षसी धावा ही बोल दिया है l इस अवस्था में जिनके पास जो कुछ भी साधन हैं, उनके द्वारा इन अभावग्रस्त प्राणियों की अपने-ही-जैसे प्राण-मन वाले मानवों की सेवा करनी चाहिये  - यह धर्म है और इसकी उपेक्षा बहुत बड़ा पाप है l
          सच तो यह है कि यहीं कुछ भी किसी का नहीं है, सभी भगवान् का है और उसे यथासाध्य आवश्यकतानुसार प्राणिमात्र की सेवा के द्वारा भगवान् की सेवा में लगाना है l  वस्तुतः सभी प्राणी भगवान् की ही अभिव्यक्ति हैं l  अतएव इनकी सेवा में किसी वस्तु का अर्पण करना भगवान् की वस्तु  भगवान् की सेवा में लगाना मात्र  है l  यह ईमानदारी है, कोई महत्व की बात नहीं l श्रीमद्भागवत में देवर्षि नारदजी के वाक्य हैं - जितने से अपना पेट भरे, उतने पर ही मानवों का अधिकार है l जो उससे अधिक पर अपना अधिकार मानता है, उसे दण्ड मिलना चाहिये l '
          देवर्षि नारद के उन शब्दों पर ध्यान दीजिये l  हमारा कुछ है ही नहीं l  उदर-पोषण भर की वस्तु स्वामी ने हमें दी है; इससे अधिक को अपनी वस्तु मानना तो बेईमानी - चोरी है l  हमें यदि भगवान् ने कोई वस्तु  दी है तो वह इसी प्रकार दी है कि जैसे भला मालिक किसी सेवक को ईमानदार  मानकर उसे अपनी वास्तु सँभालकर रखने तथा आवश्यकतानुसार अपनी सेवा में लगाने की लिए देता है, न कि  व्यर्थ खोने या अपनी मानकर यथेच्छ भोगने के लिए l  अतएव जहाँ-जहाँ जिस-जिस वस्तु का अभाव है, वहाँ-वहाँ  भगवान् मानो अपनी उस-उस वस्तु  को माँगते  हैं और जिस-जिस के पास जो-जो वस्तु  है, उसे-उसे वह-वह वस्तु  प्रसन्नचित्त से देनी चाहिये l

सुख-शान्ति का मार्ग [333]
                  

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,