संसारका
सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है, पर सुखकी छिपी आशासे
हम संसारके मिथ्या सौन्दर्यके प्रति लुब्ध हो रहे हैं! संसारके किसी भी प्राणी -
पदार्थमें सौन्दर्य नहीं है -- इस सत्यपर विश्वास करके हम अपनी भ्रान्तिसे जितनी
जल्दी छुट्टी पा लें, उसीमें हमारा भला है!
कोई
अपनी किसी साधानासे भगवान् को खरीदना चाहे तो यह उसकी मुर्खताके सिवा और कुछ नहीं
है! कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसके विनिमयमें भगवान् मिल सकें ! भगवान् मिलते हैं अपनी सहज
कृपासे ही! कृपापर विश्वास नहीं तथा कृपाको ग्रहण करनेका दैन्य नहीं
है! ऐसी स्थितिमें कैसे काम बने? 'मैंने अभिमानका त्याग कर
दिया, मुझमें अभिमान नहीं है' -- इन
उक्तियोंमें भी अभिमानकी सत्ता विधमान है!
'दैन्य' भक्तकी शोभा है! यह उसका पहला लक्षण है! भक्त अपनेको सर्वथा अकिंचन --
अभावग्रस्त पाता है और भगवान् को यही चाहिये! बस, भगवान् ऐसे
भक्तके सामने प्रकट हो जाते हैं!
भगवान्
का बल निरन्तर हमारे पास रहनेपर भी सक्रिय नहीं होता, इसका कारण है कि हम उसे स्वीकार नहीं
करते! जब भी हम भगवान् के बलको अनुभव करने लगेंगे, तभी वह बल
सक्रिय हो जायगा और हम निहाल हो जाँयगे!