जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, दिसंबर 30, 2012

भगवत्प्रेम



भाईजी के आराध्य

'प्रेम' का अर्थ है -- भगवत्प्रेम ! 'प्रेम' के नामपर जगतमें 'काम' चलता है! वह हमारी चर्चाका विषय नहीं है! भगवत्प्रेमकी प्राप्ति सहजमें नहीं होती! बहुत ऊँची साधना की सिद्धिके पश्चात् भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है !


भगवत्प्रेम क्या है -- यह कोई बता नहीं सकता! कहनेके लिये कुछ सांकेतिकरूप से समझनेके लिये कह सकते हैं -- यह भगवान् की अपनेमें ही अपनेसे ही अपनी लीला है!


भगवान् के साथ खेले -- ऐसा भगवान् का साथी कौन है? भगवान् जिस खेलको खेलें, ऐसा खेल कौन-सा है? वास्तवमें उनके योग्य न कोई साथी है न कोई खेल ही! अतएव भगवान् ही प्रेमास्पद हैं, भगवान् ही प्रेमी हैं और भगवान् ही प्रेम हैं!


स्वयं ही प्रेमी और प्रेमास्पद बनकर -- एक - दूसरेकी प्रीतिके आश्रयालंबन और विषयालंबन बनकर जो भगवान् की परम दिव्य अचिन्त्यानंत गौरवमयी पवित्रतम लीला चलती है -- वास्तवमें इसे ही भगवत्प्रेम कहते हैं! इस प्रेममें ऐसा माना जाता है और यह परम सत्य है कि भगवान् ही स्वंय अपने आनंद- स्वरुपको -- अपने भावस्वरूपको लेकर अनंत लीलारूप धारण किये रहते हैं!


भगवान् श्रीकृष्ण ही 'राधा' स्वरुपमें लीला करते हैं! अतएव श्रीराधा भगवान् से सर्वथा अभिन्न हैं! श्रीराधाके बिना श्रीकृष्णका और श्रीकृष्णके बिना श्रीराधाका अस्तित्व नहीं! दोनोंका अविनाभाव - सम्बन्ध है! रसराज महाभावके प्रेमके विषय बनते हैं और महाभाव रसराजके प्रेमका विषय बनता है! इस प्रकार परस्पर बड़ी पवित्र लीला चलती है!


श्रीराधा महाभावरूपा हैं और श्रीराधाके आराध्य, प्रेमास्पद, परमश्रेष्ठ हैं -- रसराज श्रीकृष्ण!


श्रीराधाके भावोंका, श्रीराधाके अचिन्त्यानंत भाव -समुद्रकी परम विभिन्न परमानंदमयी तरंगोंका न तो कोई वर्णन कर सकता है, न गणना और न इनके स्वरुपका विश्लेषण! अनादिकालसे अनंतकालतक प्रेमकी विशुद्ध परमाल्हादमयी तरंगें -- रसमयी मधुर तरंगें उठती रहती हैं और बड़े-बड़े प्रेमी भक्त, बड़े -बड़े भाग्यशाली ऋषि -मुनि और कोई-कोई देवता ही उन रस - मधुर-तरंगोंके दर्शन कर पाते हैं, आस्वादन तो बहुत दूर!


श्रीराधाके प्रेमकी विभिन्न तरंगोंका वर्णन नहीं हो सकता-- केवल शाखाचन्द्रन्यायसे संकेतमात्र होता है! जैसे किसीको द्वितीयाका चन्द्रमा दिखलाना है तो यह कहा जाता है कि 'देखिये, सामने उस डालसे इतना ऊपर चन्द्रमा दिखायी दे रहा है!' डालसे उतना ऊपर चन्द्रमा नहीं है, पर डालका संकेत करके चन्द्रमाको दिखानेकी प्रक्रिया होती है! इसी प्रकार श्रीराधाके गुणोंका, भावोंका संकेतमात्र किया जाता है, वर्णन नहीं! वर्णन तो असम्भव है!