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उन्नति का स्वरुप -5-


श्रीहरिः ॥
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०६९


गत ब्लॉग से आगे.....
एक सज्जन ने बहुत विद्याअध्ययन किया, शास्त्रों की खूब आलोचना की, धड़ा-धड़ परीक्षायें पास की, नाम के साथ उपाधियों के बहुत से अक्षर जुड़ गए, शास्त्रार्थो में बड़े-बड़े प्रसिद्ध पण्डितोंको परास्त किया, व्याखानोंसे आकाश गूंजा दिया, परन्तु विद्या का और विद्वान होनेपर प्रतिष्ठा का अभिमान बढ़ गया, अनेक प्रकार से तर्कजालो में फसकर उसका मन श्रद्धा और विश्वास से हीन हो गया | परमात्मा की कोई परवा नहीं, तर्क और पांडित्य से परमात्माकी सिद्धि-असिद्धि करने लगा | शास्त्र उसके मनोविनोद की सामग्री बन गए | ईश्वर की दिल्लगी उड़ाने लगा और पूरा यथेच्छारी बन गया | दूसरी और एक अशिक्षित ग्रामीण है, उसने एक भी परीक्षा पास नहीं की, उसके नाम से भी लोग अपरिचित है, अच्छी तरह बोलना भी नहीं जानता, परन्तु जिसका सरल हृदय विश्वास और श्रधा से भरा है, जो नम्रता से सबका सत्कार करता है, प्रेमपूर्वक परमात्मा का नाम स्मरण करता है, ईश्वर को जगत का नियन्ता समझकर पाप करने में डरता है, और परम सुहृदय तथा परम पिता समझकर प्रेम तथा भक्ति करता है, परम दयालु समझ कर अपने को उनका दासानुदास समझता है | प्रेम से कभी हँसता है, कभी रोता है और आनन्द से चुपचाप अपना शान्त जीवन बिताता है | बतलाइये, इनदोनों में किसकी उन्नति हो रही है ?

जो लोग अपनी राग-द्वेषयुक्त क्षुद्र अनिश्चयात्मका बुद्धि की कसौटीपर ईश्वर के स्वरुप को कसना चाहते है, उन्हें ईश्वर में कभी विश्वास नहीं हो सकता | जो बुद्धि राग-द्वेष से दूषित है, काम-क्रोध का आगार बनी हुई है, शरीर को ही आत्मा समझती है, उस बुद्धि के निर्णयके अनुसार ईश्वर को चलाने की कामना करना और उसी निर्णय में ईश्वर का इश्वरत्व या अईश्वरत्व सिद्ध करने जाना कितना बड़ा अज्ञान है? यह स्मरण रखना चाहिये कि सरल विश्वास और श्रद्धा विना ईश्वरीय ज्ञान कभी नहीं हो सकता  |
....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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