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भक्त के लक्षण -२-



        || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
 
गत ब्लॉग में ...२. भगवान का भक्त निर्भय होता है | वह जानता है की समस्त विश्व के स्वामी, यमराज का भी शासन करने वाले भगवान श्यामसुन्दर हर घडी मेरे साथ है, मेरे रक्षक है | फिर उसे डर किस बात का हो? भगवान की शरण जिसने ले ली, वही निर्भय हो गया | लंका में रावण के द्वारा अपमानित होकर जब विभीषण नाना प्रकार के मनोरथ करते हुए भगवान की शरण में आये, तब उन्हें द्वार पर खड़े रखकर सुग्रीव इस बात की सूचना देने भगवान श्रीराम के पास गये | श्री राम ने सेनापति सुग्रीव से पूछा-‘क्या करना चाहिये?’ राजनीति कुशल सुग्रीव ने उतर दिया –

जानी न जाय निसाचर माया | कामरूप केहि कारन आया ||
भेद हमार लेन सठ आवा | राखिअ बाँधी मोहि अस भावा ||

समीप में बैठे हुए भक्तराज हनूमान ने मन-ही-मन सोचा, ‘सुग्रीव क्या कह गए | अरे, जिसका नाम भूल से निकल जाने पर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाता है, उस मेरे राम के चरणों में आने वाले के लिए बंधन की बात कैसी !’ परन्तु स्वामी और सेनापति के बीच में बोलना अनुचित समझकर हनूमान चुप रहे |

शरणागतवत्सल भगवान श्रीराम ने सुग्रीव की प्रसशा करते हुए अपना व्रत बतलाया-

सखा नीति तुम्ह नीकि विचारी | मम पशरनागत भय हारी ||

 हनूमान का मन खिल उठा | वाल्मीकि रामायण में भी भगवान श्रीराम से ऐसी ही बात कही है –

सकृदेव प्रपत्राय तवास्मीति च याचते |
अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद्वत्व्रतं मम ||   ( ६|१८|३३)

‘जो एक बार भी मेरी शरण होकर यह  कह देता है की ‘मै तेरा हुँ, मै उसको सम्पुर्ण भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ भला ऐसी हालत में भगवान का सच्चा भक्त निर्भय क्यों न होगा ?’... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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