|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, प्रतिपदा, रविवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग में ... ४.भक्त में अभिमान
नहीं होता, वह तो सारे जगत में अपने स्वामी को व्याप्त देखता है और अपने को उनका
सेवक समझता है | सेवक के लिए अभिमान का स्थान कहाँ? उसके द्वारा जो कुछ होता है सो
सब उसके भगवान की शक्ति और प्रेरणा से होता है | ऐसा विनम्र भक्त सदा सावधानी से
इस बात को देखता रहता है की कही मेरे किसी कार्यद्वारा या चेष्टाद्वारा मेरे
विश्व्व्याप्त स्वामी का तिरिष्कार न हो
जाये | मेरे
द्वारा सदा-सर्वदा उनकी आज्ञा का पालन होता रहे, मैं सदा उनकी रूचि के अनुकूल चलता
रहू | वह अपने को उस सूत्रधार के हाथ की कठपुतली समझता है | सूत्रधार जैसे नचाता
है, पुतली वैसे ही नाचती है, वह इसमें अभिमान क्या करे ? अथवा यो समझिये की सारा
संसार स्वामी का नाट्यमंच है, इसमें हम सभी लोग नट है, जिसको स्वामी ने जो स्वांग
दिया है, उसी के अनुसार सांगोपांग खेल खेलना, अपना पार्ट करना अपना कर्तव्य है | जो आदमी मालिक की रूचि के अनुसार उसका काम नहीं करता वह नमकहराम
है और जो मालिक की संपत्ति को अपनी मान लेता है वह बइमान है |
नट
पार्ट करता है, स्टेज पर किसी के साथ पुत्रका सा, किसी के साथ पिताका सा, किसी के
साथ मित्र का सा यथायोग्य वर्ताव करता है , परन्तु वस्तुत: किसी भी वस्तु को अपनी पोशाक तक को अपनी नहीं सझता | इसी प्रकार
भगवान का भक्त उनकी नाट्यशाला इस दुनिया में उनके संकेतानुसार उन्ही के दिए हुए
स्वांग को लेकर आलस्यरहित हो उन्ही की शक्ति से कर्म किया करता है | इसमें वह
अभिमान किस बात का करे? वह
मालिक का विधान किया हुआ है – बताया हुआ अभिनय करता है न की अपनी और से कुछ |
पार्ट करने में चूकता नहीं, क्योकि इसमें मालिक का खेल बिगढ़ता है; और अपना कुछ
मानता नहीं, क्योकि वह जानता है की सब मालिक का खेल है, मेरा कुछ भी नहीं | वह
मालिक को ही सबका नियंत्रण करना वाला और सर्वर्त्र व्याप्त देखता है और अपने को
उसका अनन्य सेवक समझता है |
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं
सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ||... शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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