जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, मई 29, 2013

भक्त के लक्षण -७-


    || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, पंचमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में .. एक बार ब्रह्मा जी भगवान के द्वार पर पहुचे, भगवान ने द्वारपाल के द्वारा उन्हें पुछवाया की ‘आप कौन से ब्रह्मा हैं ?’ ब्रह्मा को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ | वे सोचने लगे की ‘कहीं ब्रह्मा भी दस-बीस थोड़े ही है |’ उन्होंने कहा,जाओ  कह दो चतुर्मुख ब्रह्मा आये है |’ भगवान ने उनको अंदर बुलवाया | ब्रह्मा का कौतुहल शान्त नहीं हुआ, उन्होंने पूछा ‘भगवन ! आपने यह कैसे पुछा की कौन-से ब्रह्मा है ? क्या मेरे अतिरिक्त और भी कोई ब्रह्मा है ?’ भगवान् हँसे, उन्होंने विभिन्न  ब्रह्माण्ड के ब्रह्माओ का आवाहन किया | तत्काल वह वहाँ पर चार से लेकर हज़ार मुख तक के अनेको ब्रह्मा आ पहुचे | भगवान ने कहा, ‘देखो, ये सभी ब्रह्मा है, अपने-अपने ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा है |’ तब ब्रह्मा जी का संदेह दूर हुआ | ऐसे ब्रह्माओ के एकमात्र स्वामी जिसके प्राणप्रिय हो, वह  भक्त किस वस्तु की कामना करे |

पाँच सखियाँ थीं, पाँचों श्री कृष्ण की भक्त थी | एक समय वे वन में बैठी फूलों की माला गूँथ रही थी | उधर से एक साधु आ निकले | साधु को रोककर बालाओ ने कहा – ‘महात्मन ! हमारे प्राणनाथ  श्रीकृष्ण वन में कही खो गए है, उन्हें आपने देखा हो तो बतलाईये |’ इस पर साधुने कहा – ‘री पगलियो ! कही श्रीकृष्ण यों मिलते है | उनके लिए घोर तप करना चाहिये | वे राजराजेश्वर है, नाराज़ होते है तो दण्ड देते है और प्रसन्न होते है तो पुरूस्कार |’ सखियों ने कहा – ‘महात्मन ! आपके वे श्रीकृष्ण दुसरे होंगे, हमारे श्रीकृष्ण तो राजराजेश्वर नहीं है, वे तो हमारे प्राणपति है, वे हमे पुरूस्कार क्या देते? उनके खजाने की कुंजी तो हमारे पास रहती है | दण्ड तो वे कभी देते ही नहीं, यदि हम कभी कुपथ्य कर ले और वे कडवी दवा पिलावे तो यह तो  दण्ड नहीं है, प्रेम है |’ साधु उनकी बात सुनकर मस्त हो गए | वे अपने श्रीकृष्ण को याद करके नाचने लगी  और साथ ही साधु भी तन्मय होका नाचने लगे | यह कथा बहुत लम्बी है, मैंने बहुत संक्षेप में कही है | सारांश यह ही ऐसा भक्त प्रभु से क्या मांगे ? ऐसा भक्त तो निष्काम भाव से नित्य-निरंतर अति प्रेम के साथ उनका चिन्तन ही करता रहता है |... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!  

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