जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, जून 22, 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -22-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०७०

एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -१-

गत ब्लॉग से आगे ... ११. याद रखो -परमात्मा एक है और वही अनंत रूपोंमें अभिव्यक्त है | जब तक उन परमात्माका बाहर-भीतर, सर्वत्र-सदा साक्षात्कार नहीं होता, तब तक कभी भी सदा रहनेवाली वास्तविक सुख-शान्ति नहीं मिल सकती |

 

याद रखो -जैसे एक ही अग्नि अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कहीं कोई भेद नहीं है, पर जब वह किसी आधार-वस्तुमें व्यक्त होकर प्रज्वलित होती है, तब वह उसी वस्तुके आकारका दृष्टिगोचर होने लगती है; वैसे ही समस्त प्राणियोंके अंतर-आत्मा रूपमें विराजित अन्तर्यामी परमात्मा सबमें समभावसे व्याप्त हैं; उनमें कहीं कोई भेद नहीं है, तथापि वे एक होते हुए ही उन-उन प्राणियोंके अनुरूप विभिन्न रूपोंमें दिखाई देते हैं | पर वे उतने ही नहीं हैं, उन सबके बाहर भी अनंत रूपोंमें स्थित हैं |

 

याद रखो -जैसे एक ही अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कोई भेद नहीं है; परन्तु व्यक्त होकर विभिन्न वस्तुओंके संयोगसे वह उन्हींके अनुरूप गति तथा शक्तिमान दिखाई देता है, वैसे ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा परमात्मा एक होते हुए ही उन-उन प्राणियोंके सम्बन्धसे विभिन्न पृथक-पृथक गति और शक्तिवाले दिखाई देते हैं, उन सबके बाहर भी अनंत-असीम-असंख्य विलक्षण रूपोंमें स्थित हैं |.. शेष अगले ब्लॉग में ...         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!      

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