|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे....प्रसिद्धि –संसार में ख्याति साधन-मार्ग
का एक बड़ा विघ्न है | इसी से संतों ने भगवत्प्रेम को ही गुप्त रखने की आज्ञा दी
है, जैसे भले घर की कुलटा स्त्री जार के अनुराग को छिपाकर रखती है | साधक की
प्रसिद्धि होते है चारों और से लोग उसे घेर लेते है | साधन के लिए उसे समय मिलना
कठिन हो जाता हैं | उसका अधिक समय सैकड़ो-हजारों आदमिओं से बातचीत करने और
पत्र-व्यवहार में बीतने लगता है | जीवन की अंतर्मुखी वृति बहिर्मुखी हो जाता है |
वह बहार के कामों में लग जाता है और क्रमश: गिरने लगता है | परन्तु प्रसिद्धि में
प्रिय भाव उत्पन्न हो जाने के कारण उसे वह सदा बढ़ाना चाहता है और यों दिनों-दिन
अधिकाधिक लोगों से परिचय प्राप्त कर लेता है | फिर उसका असली साधक का रूप तो रहता
नहीं, वर्म प्रसिद्धि कायम रखने के लिए वह दम्भ्ह आरम्भ कर देता है | और वैसे ही रात-दिन जलता और नये-नये ढोंग रचता
है, जैसे निर्धन मनुष्य धनी काहाने पर अपने उस झूठे दीखाऊ धनीपन को कायम रखने के
लिए अन्दर-ही-अन्दर जलता और जाल रचता रहता है | उसका जीवन कपट, दुःख और संताप का
घर बन जाता है | ऐसी अवस्था में सधन का तो स्मरण ही नहीं होता | अतएव इस अवस्था की
प्राप्ति न हो, इससे पहले ही बढ़ती हुई प्रसिद्धि को रोकने की चेष्टा करनी चाहिये |
यह बात याद रखनी चाहिये-‘जिनकी प्रसिद्धि नहीं हुई और भजन
होता है, वे पूरे भाग्यवान है | जितनी प्रसिद्धि है, उसे जायदा भजन होता है तो भी
अधिक डर है | जितना भजन होता है, उतनी ही प्रसिद्धि है तो गिरने का भय है | जितना
भजन होता है, उससे कही जायदा प्रसिद्धि हुई तो वह गिरने लगा और जहाँ कोई बिना भजन
के ही भजनानंदी कहलाता है, वहाँ तो उसका पतन हो ही चुका है |’ शेष अगले ब्लॉग में
...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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