|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे....मान-बड़ाई-यह बड़ी मीठी छुरी है या विषभरा
सोने का घड़ा है | देखने में बहुत ही मनोहर लगता है, परन्तु साधन-जीवन को नष्ट करते
इसे देर नहीं लगती | संसार के बहुत बड़े-बड़े पुरुषों के बहुत बड़े-बड़े कार्य
मान-बड़ाई के मोल पर बिक जाते है | असली फल उत्पन्न करने से पहले से ही वे सब
मान-बड़ाई के प्रवाह में बह जाते है | मान की अपेक्षा भी बड़ाई अधिक प्रिय मालूम
होती है | बड़ाई पाने के लिए मनुष्य मान का त्याग कर देता है ; लोग प्रशंसा करे,
इसके लिए मान छोड़ कर सबसे नीचे बैठते और मानपत्र आदि का त्याग करते लोग देखे जाते
है | बड़ाई मीठी लगी की साधन-पथ से पतन हुआ | आगे चलकर तो उसके सभी काम बड़ाई के लिए
ही होते है | जब तक साधन से बड़ाई होती है, तब तक वह साधक का भेष रखता है | जहाँ
किसी कारण से परमार्थ-साधन में रहने वाले मनुष्य की निन्दा होने लगती है, वहीँ वह
उसे छोड़ कर जिस कार्य में बड़ाई होती है, उसी में लग जाता है; क्योकि अब उसे बड़ाई
से ही काम है, भगवान से नहीं | अतएव मान-बड़ाई की इच्छा का सर्वथा त्याग करना
चाहिये | परन्तु सावधान, यह वासना बहुत ही छिपी रह जाती है, सहज में इसके अस्तित्व
का पता नहीं चल पाता | मालूम होता है हम बड़ाई के लिए काम नहीं कर रहे है; यदि यदि
निन्दा जरा भी अप्रिय लगती है और बड़ाई सुनते ही मन में संतोष-सा प्रतीत होता है या
आनन्द की एक लहर-सी उठकर होठों पर हँसीकी रेखा-सी चमका देती है तो समझना चाहिये की
बड़ाई की इच्छा अवश्य मन में है | बहुत से मनुष्य तो भोगों तक का त्याग भी बड़ाई
पाने के लिए ही करते है | यदपि न करने वालों के अपेक्षा बड़ाई के लिए किया जाने
वाला त्याग या धार्मिक सत्कार्य बहुत ही उतम है, परन्तु परमार्थ दृष्टी से
मान-बड़ाई की इच्छा अत्यन्त हेय और निंदनीय होने के साधन से गिराने वाली है | शेष
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—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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