सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....गुरुपन-साधन अवस्था में मनुष्य के लिए गुरुभाव को प्राप्त हो जाना बहुत ही हानिकारक है | ऐसी अवस्था में, जब वह ही सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता, जब उसी का साधन पथ रुख जाता है, तब वह दूसरों को कैसे पार पहुचायेगा ! ऐसे ही कच्चे गुरुओं के सम्बन्ध में यह कहा जाता है-जैसे अन्धा अन्धों की लकड़ी पकड़कर अपने सहित सबको गड्ढे में डाल देता है, वैसी ही दशा इनकी होती है | परमार्थ पथ में गुरु बनने का अधिकार उसी को है, जो सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुका हो | जो स्वयं लक्ष्य तक नहीं पंहुचा है, वह यदि दूसरों को पहुचाने का ठेका लेने लगता है तो उसका परिणाम प्राय: बुरा ही होता है | शिष्यों में से कोई सेवा करता है तो उस प उसका मोह हो जाता है | कोई प्रतिकूल होता है तो उस पर क्रोध आता है | सेवक के विरोधी से द्वेष होता है | दलबंदी हो जाती है | जीवन बहिर्मुख होकर भाँती-भांति के झंझटों में लग जाता है | साधन छुट जाता है |उपदेश और दीक्षा देना ही जीवन का व्यापार बन जाता है | राग-द्वेष बढ़ते रहते हैं और अंत में वह सर्वथा गिर जाता है | साधन पथ में दूसरों को साथी बनाना, पिछड़े हुओं को साथ लेना, मित्र भाव से परस्पर सहायता करना, भूलें हुओं को मार्ग बताना, साथ में प्रकाश या भोजन हो तों दूसरों को भी उससे लाभ उठाने देना, मार्ग में बीमारों की सेवा करना, असक्तों को शक्ति भर साहस, शक्ति और धैर्य प्रदान करना तो साधक का परम कर्तव्य हैं | परन्तु गुरु बनकर उनसे सेवा कराना, पूजा प्राप्त करना, अपने को ऊचा मानकर उन्हें नीचा समझना, दीक्षा देना, सम्प्रदाय बनाना, अपने मत को आग्रह से चलाना, दूसरों की निन्दा करना और बड़प्पन बघारना आदि बाते भूल कर भी नहीं करनी चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,