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परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -८-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....सांसारिक कार्यों की अधिकता-मनुष्य के घर, संसार के, आजीविका के-यहाँ तक की परोपकार तक के कार्य उसी हद तक करने चाहिये, जिसमे विश्राम करने तथा दूसरी आवश्यक बाते सोचने के लिए पर्याप्त समय मिल जाये | जो मनुष्य सुबह से लेकर रात को सोने तक काम में ही लगे रहते है, उनको जब विश्राम करने की फुरसत नही मिलती, तब घंटे दो घंटे स्वाध्याय करने की फुरसत करने अथवा  मन लगा कर भगवचिन्न्तन करने को तो अवकाश मिलना सम्भव ही कैसे हो सकता है | उनका सारा दिन हाय-हाय करता बीतता है, मुश्किल से नहाने-खाने को समय मिलता है | वे उन्हीं कामों की चिन्ता करते करते सो जाते है, जिससे स्वप्न में भी उन्हें वैसी ही सृष्टी में विचरण करना पडता है | असल में तो सांसारिक पदार्थों के अधिक संग्रह करने की इच्छा ही दूषित है | दान के तथा परोपकार के लिए भी धन-संग्रह करने वालों की मानसिक दयनीय दुर्दशा के द्रश्य प्रयत्क्ष देखे जाते है, फिर भोग के लिए अर्थसंचय करनेवालों के दुःख भोगने में तो आश्चर्य ही क्या है | परन्तु धन-संचय किया भी जाय तो इतना काम तो कभी नहीं बढ़ाना चाहिये, जिसकी संभाल और देखभाल करने में ही जीवन का अमूल्य समय रोज दो घडी स्वस्थ्यचित से भगवदभजन किये बिना ही बीत जाए | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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