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विषय और भगवान -४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, चतुर्थी, शनिवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे.....*जो साधक थोड़े में ही बहुत ऊची स्थिति प्राप्त करने की आशा कर बैठता है उसके मन में इस प्रकार की दशा समय-समय पर हुआ करती है, यह साधन में विघ्न है, ऐसे समय घबराकर साधन को छोड़ नहीं बैठना चाहिये | धीरता और दृढता के साथ बिना उकताए साधन किये जाना ही साधक का कर्तव्य है, सच्चे साधक को तो यह विचारने के ही आवश्यकता नहीं है की मेरी उन्नति हो रही है या नहीं | जो हरिभजन और  गुरु- शुश्रुषा के बदले में उन्नति चाहता है और उन्नति की कामना से हरिभजन और गुरुशुश्रुषा करता है,वह तो हरिभजन और गुरुशुश्रुषारुपी सहज धर्म को-प्रेम के परम कर्तव्य को उन्नति के मूल्य पर बेचता है, वह सौदागर है, हरिभक्त और हरीशिष्य नहीं | भक्त और शिष्य का तो केवल यही कर्तव्य है की गुरुपदिष्ट मार्ग से निष्कामभाव से विशुद्ध प्रेम के साथ स्वाभाविक ही साधना करता रहे |

मैं साधन कर रहा हूँ ऐसी भावना ही मन में न आने दे | ऐसी भावना से अपने अन्दर साधनपन का अभिमान उत्पन्न होगा और साधन के फल की स्पृहा जाग्रत हो उठेगी, इश्वरेइच्छा से इच्छित फल न मिलने या विपरीत परिणाम होने पर उसके मन में साधन और साधनबतलाने वाले सद्गगुरु के प्रति शंका और अश्रद्धा हो जाएगी, जिसका फल यह होगा की वह साधन से गिर जायेगा | सच्चे साधक को फल की चिन्ता ही नहीं करनी चाहिये, फल की बात भगवान् जाने, उसे फल से कोई मतलब नहीं, अनुकूल हो तो हर्ष नहीं और प्रतिकूल हो तो शोक नहीं |

भगवान कहते है जिस वस्तु को लोग प्रिय समझते है उसकी प्राप्ति में हर्षित नहीं होता, और जो वस्तु लोगों की दृष्टी में बहुत ही अप्रिय है, उसको पाकर वह दुखित नहीं होता | वह तो जानता है केवल अनन्यभजन, उसे लाभ-हानि, स्वर्ग-नरक, सिद्धि-असिद्धि और मोक्ष- बन्धन से कोई लेंन-देंन नहीं | यदि भजन होता है तो वह सभी अवस्थाओं में सदा परम सुखी रहता है | उसके मन में कोई विपत्ति है, तो यही है की जब किसी कारणवश प्रभु का स्मरण छूट जाता है |

‘कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई |  जब तक सुमिरन भजन न होई ||

शेष अगले ब्लॉग में....       

   श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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