|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, पन्चमी, रविवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे..... यह विचार कर उसने घड़ा जमींन पर रख दिया और भागने का विचार
किया | गुरु महाराज बड़े ही महात्मा पुरुष थे और परम योगी थे | उन्होंने शिष्य के
मन की बात जानकर उसे चेतना के लिए योगबल से एक विचित्र कार्य किया |
उनकी योगशक्ति से मिट्टी के जड घड़े में से मनुष्य की भाँती
आवाज निकलने लगी | घड़े ने पुकारकर पुछा, ‘भाई ! तुम कहाँ जा रहे हो ?’ शिष्य ने
कहा, इतने यहाँ रहकर सत्संग किया, परन्तु कुछ भी नहीं मिला, इससे इसे छोड़कर
कही दूसरी जगह जा रहा हूँ |’ घड़े में से
फिर आवाज आई, ‘जरा ठहरो, मेरी कुछ बाते मन लगा कर सुन लों, मैं तुम्हे अपनी जीवनी
सुनाता हूँ, उसके सुनने के बाद जाना उचित समझना तो चले जाना |’ शिष्य के स्वीकार
करने पर घड़ा बोलने लगा ‘देखो, मैं एक तालाब के किनारे मिट्टी के रूप में पड़ा था,
किसी की भी कुछ भी बुराई नहीं करता था, एक जगह चुपचाप पड़ा रहता था, लोग आकर मेरे
ऊपर मलत्याग करते,सियार-कुते बिना बाधा पेशाब करते | मैं सब कुछ सहता, मन का दुःख
कभी किसी के सामने नहीं कहता | मेरा किसी के साथ कोई वैर नहीं था, तो भी न मालूम
क्यों एक दिन कुम्हार ने आकर मुझपर तीखी कुदाल का वार किया, मेरे शरीर को जहाँ-तहां
से काटकर अपने घर ले गया | वहाँ बड़ी ही निर्दयता से मेरा चकनाचूर कर डाला, पैरों
से रोंदकर मेरी बड़ी ही दुर्दशा की | फिर जब एक चक्र में डालकर मुझे घुमाने लगा,
बड़ी मुश्किल से जब घूमने से पिंड छूटा, तब मैंने सोचा की अब तो इस विपति से
छुटकारा होगा, परन्तु परिणाम उल्टा ही हुआ | कुम्हार ने कुछ देर पीटकर मुझे कड़ी
धुप में डाल दिया और फिर जलती हुई आग में डालकर जलाने लगा | अंत में वह मुझे एक
दूकान पर रख आया, मैंने समझा की अब तो छूट ही जाऊँगा, लेकिन फिर भी नहीं छूट सका |
वहाँ मुझे जो कोई भी लेने आता, ठोककर बजाये बिना नहीं हटता, यों लोगों की थप्पड़
खाते-खाते मेरे नाकोंदम हो गया | इस प्रकार कितना ही काल बीतने पर मैं एक साधू के
आश्रम में पहुच सका हूँ, यहं मुझे पवित्र गंगाजल को ह्रदय पर धारण कर भगवान् की
सेवा करने का मौका मिला है | इतने कष्ट, इतनी भयानक यातनाएँ भोगने के बाद कहीं में
परम प्रभु की सेवा में लग सका हूँ | जीवन भर महान दुखों की चक्की में पिसने पर ही
आज विश्वनाथ की चरण-सेवा का साधन बन कर धन्य हो सका हूँ | शेष अगले ब्लॉग में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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