जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

सोमवार, अगस्त 26, 2013

विषय और भगवान -६-


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, षष्ठी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.....भाई ! उन्नति के-यथार्थ उन्नति के उच्चे सिंघासन पर चढ़ने वाले को प्रथम बाधा-विघ्नजनित भयानक निराशा के थपेड़े अटल, अचलरूप से सहने पडते है, शून्यता के घोर जलशून्य मरुस्थल को स्थिर धीर भाव से लाँघकर आगे बढ़ना पडता है | इस अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होनेपर फिर कोई भय नहीं है | अतएव मेरे भाई ! तुम निराश न होओ, जितना दुःख या कष्ट आये, जितनी ही अधिक निराशा, शून्यता, अभाव और अधंकार की काली-काली घटाएँ जीवनाकाश में चरों और फ़ैल जायँ, उतना ही तुम भगवान की और अग्रसर हो सकोगे | यातना की अग्निशिखा जितनी ही अधिक धधकेगी, तुम उतने ही शान्ति-धाम के समीप पहुचोगे |’

घड़े के सदुपदेश से शिष्य की आँखे खुल गयी, उसने अपनी पूर्वस्थिति के साथ वर्तमान-स्तिथि की तुलना की तो उसे साधना और गुरुसेवा का प्रयत्क्ष महान फल धीखायी दिया | वह घड़े को उठाकर गुरु की कुतिया को चल दिया और वहाँ पहुचकर गुरु के चरणों में लोट गया |

इस द्रष्टान्त से यह समझना चाहिये की हमे यदि सत, चित, आनन्द, नित्य निरंजन परमात्मा को प्राप्त करना है तो किसी भी विपत्ति और कष्ट से घबराना नहीं चाहिये | संसारी विपतियाँ और कष्ट तो इस मार्ग में पद-पद पर आयेंगे | वास्तव में अपने सारे भोगों का सर्वथा नाश ही कर देना पड़ेगा | शेष अगले ब्लॉग में....       

   श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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