सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

विषय और भगवान -७-


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, सप्तमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे..... विराग की आग में विषयों की पूर्णाहुति दे देनी पड़ेगी | भगवान् तो कहते है ‘जो मेरा प्रेम से भजन करते है, मैं उसके वित्त को (उसकी संपत्तिको ) हर लेता हूँ (संपत्ति से केवल रूपये ही नहीं समझने चाहिये, जिसका मन जिस वस्तु को सम्पत्ति समझता है वही उसकी सम्पत्ति है  जैसे लोभी धन को, कामी स्त्री को और मानि मान को संपत्ति मानता है) और उसका भाइयों से, घरवालों से विच्छेद करवा देता हूँ, इससे वह बड़े ही दुःख से जीवन काटता है | इतना संताप प्राप्त होने पर भी जो मेरा त्याग नहीं करता, प्रेम से मेरा भजन करता ही रहता है, उसे में अपना देव-दुर्लभ परमपद प्रदान कर देता हूँ |’

श्रीमद्भागवत में एक दूसरी जगह भगवान् कहते है ‘जिस पर मैं कृपा करता हूँ, उसके सारे धन (रत्न-धन, स्वर्ण-धन, गौ-धन, कीर्ति-धन) आदि को शनै: शनै: हर लेता हूँ, तब उस दुखों से घिरे हुए निर्धन मनुष्य को उसके स्वजन लोग भी छोड़ देते है | यदि फिर भी वह घरवालों के  आग्रह से धन कमाने का कोई उद्योग करता है तो मेरी कृपा से उसके सारे उद्योग व्यर्थ हो जाते है | तब वह विरक्त होकर मत्परायण  भक्तों के साथ मैत्री करता है, तदन्तर उसपर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसे उस परम सूक्ष्म, सत-चैतन्य-घन, अनन्त परमात्मा की प्राप्ति होती है | इसलिए लोग मेरी आराधना को कठिन समझकर दूसरों को भजते है और उन शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले दूसरों से राज्यलक्ष्मी पाकर उद्धत, मतवाले और असावधान होकर अपने उन वरदान देने वालों को भूलकर उन्ही का अपमान करने लगते है |’ (श्रीमद्भागवत  १०|८८|८-११)

इसका यह अभिप्राय नहीं की जिनके पास धन है, उन पर भगवतकी कृपा और उन्हें भगवत्प्राप्ति होती ही नहीं | अवश्य ही जब तक धन का अभिमान है और धन में आसक्ति हैं, तबतक भगवत्कृपा और भगवत्प्राप्ति नहीं होती | जिन्होंने अपना माना हुआ सर्वस्व भगवान् के चरणों में अर्पण कर दिया है, जिनकी सारी अहंता-ममता पर भगवान् का अधिकार हो गया, वे अवश्य ही धन रहते हुए भी आकिंचन हैं, ऐसे धनी अकिंचंनों पर भगवान् की कृपा अवश्य होती है | शेष अगले ब्लॉग में....

           श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,